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________________ सन्धि ९ १ विदेह देश एवं कुण्डपुर नगरका वर्णन लक्ष्मी द्वारा आलिंगित यह भारतवर्षं मातंगों - ( हाथियों), धन-धान्यों सुन्दर कलापूर्ण भवनों एवं रंग-बिरंगे गाँवोंसे निरन्तर मण्डित रहता है । उसी भारतवर्ष में विद्याधरों एवं अमरोंसे सुशोभित प्रदेशवाला विदेह नामक एक सुप्रसिद्ध देश है, जहाँ सुन्दर धार्मिक लोग निवास करते हैं तथा जो ऐसा प्रतीत होता है, मानो अपनी समस्त मनोहर कान्तिका सार पदार्थ ही हो, जो कि मुनिवरोंके चरण-कमलोंकी भक्तिपूर्वक उस पृथिवीपर पुंजीभूत कर दिया गया हो । जहाँ ( जिस विदेहमें ) धवल वर्णवाला गो-मण्डल (मनमें) अनुराग उत्पन्न करता है तथा जिसका मध्य भाग आरामपूर्वक बैठे हुए मृगोंसे सुशोभित रहता है, जिस विदेहमें लोगों का इतना मन रमता है कि फिर वे वहाँसे वापस नहीं लौट पाते तथा जो देश ऐसा प्रतीत होता है मानो पूर्णमासीका चन्द्रमा ही हो । १० जो देश विमलतर भव्य - गुणोंसे मण्डित है, सुख प्रदान करनेवाले ( विविध ) पद्मोंसे आलिंगित तथा समीप में बैठे हुओंकी तृषाका नाश करनेवाले विशाल जलाशयोंसे सुशोभित है, जो (देश) द्विजवरों एवं सन्तों द्वारा संसेवित है, वह ऐसा प्रतीत होता है मानो असंख्यात का समूह ही (आकर उपस्थित हो गया ) हो । १५ जिस विदेह देशमें खेतोंमें ही खल ( खलिहान - अनाज रखनेके स्थान ) प्राप्त होते थे, अन्यत्र ( पुरुषोंमें खलता ) नहीं थी । यदि बन्धन कहीं था तो मात्र हयवरों ( उत्तम घोड़ों) में ही था, अन्यत्र नहीं । यदि कहीं मद था, तो वह महागजोंमें ही था, अन्यत्र नहीं । यदि कुटिलपना कहीं थी तो वह स्त्रियोंके केशोंमें ही, अन्यत्र कहीं भी नहीं । यदि धृष्टता कहीं थी तो मात्र तरुणीजनों के स्तनोंमें ही थी, अन्यत्र कहीं नहीं । पंकस्थिति ( कीचड़की तरह रहना, दूसरे पक्षमें कीचड़ में रहना ) यदि कहीं थी तो केवल शालि, धान्य एवं कमलोंमें ही थी, अन्यत्र कहीं नहीं ( अर्थात् अन्यत्र पंक – पापकी स्थिति नहीं थी ) | जड़की संगति जहाँ महातरुवरोंमें ही थी अन्यत्र कोई जड़ - मूर्ख नहीं था । व्याकरण ही एक ऐसा विषय था, जिसमें गुण, लोप, सन्धि, द्वन्द्व समास एवं उपसर्ग ( के नियमों) द्वारा सुमार्गका निरीक्षण किया जाता था, अन्यत्र नहीं । उसी विदेह देशमें कुण्डपुर नामक एक नगर है जिसने अपनी ध्वजा-समूहसे तीव्र भानुको भी ढँप दिया था । घत्ता- वह कुण्डपुर गगनके समान विशाल, सुरम्य, समस्त वस्तुओंका आधार, समतामें तत्पर साधुओंके सदृश लोगोंको हर्षित करनेवाला, ज्ञानियोंसे युक्त तथा कलाधरोंको धारण करने वाला था ॥ १७१ ॥ Jain Education International ५ For Private & Personal Use Only २० २५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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