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________________ ८.१५. १२] हिन्दी अनुवाद १९३ मुनिराज नन्दनके द्वादश विध तप निर्दोष महामतिरूपी भुजाओंके बलसे जिसने श्रुत-रूपी रत्नाकरको शीघ्र ही पार कर लिया तथा जिस समय तीव्र तपरूपी तपनका प्रारम्भ किया, तब मनसे रागद्वेषरूपी दोनों दोषोंको निकाल बाहर कर अनशन-विधान द्वारा अध्ययन एवं ध्यानको सुख-पूर्वक संसाधित ( यह प्रशम अनशन तप हुआ )। निद्राको समाप्त करने हेतु विधिपूर्वक सचित्त वजित परिमित आहार ग्रहण करता था ( दूसरा अनोदर तप) खलजनोंके निन्दार्थक वचनोंकी उपेक्षा करके ५ क्षुधा एवं तृषाके विलासको दूर किया तथा निर्मलतर हृदयसे कई-कई घरोंमें गमन करनेकी वृत्तिमें ( अल्पाति अल्प) संख्या निश्चित करनेरूप वृत्तिपरिसंख्यान तप प्रारम्भ किया ( तीसरा तप)। जिनमतको जानकर इन्द्रियोंको जीतनेवाले तथा संक्षोभका हरण करनेवाले रसोंका त्याग कर दिया ( चौथा रस परित्याग तप ) असमाधि ( विषमता ) को मिटानेके लिए शयनासनको निर्जन्तुक स्थानमें करने लगे। ( पाँचवाँ विविक्त शय्यासन तप ) मनको वशमें कर शोक रहित १० होकर परिग्रहका त्याग कर त्रिकालों (प्रातः, दोपहर एवं सन्ध्याकाल) में योगमुद्रा धारण करने लगे (छठवाँ कायोत्सर्ग तप)। इस तरह जिस प्रकार बाह्य छह प्रकारोंके तपोंका आचरण किया उसी प्रकार छह प्रकारके आभ्यन्तर-तपोंको भी धारण किया। घत्ता-वह नन्दन नाना प्रकारके विधि-विधानों द्वारा सम्यग्दर्शनकी आराधना करने लगा, छह आवश्यकोंकी विधिका मनमें स्मरण करने लगा तथा शंकादिक दोषोंका परिहरण ।।१६७।। । १५ घोर तपश्चर्या द्वारा नन्दनने कषायों, मदों एवं भयोंका घात किया सम्यक्त्वसे अलंकृत वह नन्दन भक्तिभावपूर्वक आये हुए श्रावकोंको सम्बोधित करता था। पापोंका नाश करनेवाले जिननाथके शासनकी प्रभावना किया करता था। अति घोर तथा दुस्सह तप और ज्ञानसे उस वीरने भीषण भवका नाश किया। पाँच समितियों, तीन गप्तियों एवं अन्य अनेक गुणोंसे युक्त होकर उसने मन ( की चंचल प्रवृत्तियों) को रोक दिया। वह पापपूर्ण विकथाओंको कदापि नहीं करता था, निरन्तर पंचपरमेष्ठी पदोंका स्मरण किया करता था। । सारभूत अति वात्सल्य गुणरूपी उत्तम जलसे क्रोधरूपी अग्निका शमन करता था। मार्दवरूपी वज्रसे मानरूपी पर्वतका निर्दलन कर निर्दोष कीर्ति प्राप्त करता था। उस साधुरूपी चन्द्रमाने ( आर्जवरूपी धर्मसे ) मायाका क्षय कर दिया। ( सच ही कहा गया है-) किरण-समूहका धारक चन्द्रमा क्या तिमिर-श्रीको सहन कर सकता है। अपने शरीरके प्रति निस्पृह स्वभाववाले उस नन्दनने लोभरूपी शत्रुका नाश कर दिया। , अलिकुलके समान अज्ञानरूपी अन्धकारसे मुक्त वे मुनिराज गुणगणरूपी धनमें अनवरत रूपसे आसक्त रहते थे। उन ( गुणों ) को प्राप्त कर वे उसी प्रकार सुशोभित थे जिस प्रकार स्फटिक मणि निर्मित पर्वतपर चन्द्र किरणें सुशोभित होती हैं । घत्ता-जिस प्रकार पवन द्वारा वृक्ष जड़मूलसे उखाड़ डाला जाता है, उसी प्रकार संगपरिग्रह रहित आचरणवाले उस मुनिराज नन्दनने अपने हृदयसे जड़मूलसे सभी मदों एवं भयोंका १५ निरसन कर दिया ॥१६८॥ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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