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________________ हिन्दी अनुवाद ፡ चक्रवर्ती प्रियदत्तकी वैराग्य भावना शत्रु समूह विमर्दनमें प्रवृत्त बुद्धिवाला वह चक्रवर्ती उस श्वेत केशको देखकर विचार करने लगा - "मुझे छोड़कर ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो विषय विषोंमें इस प्रकार उलझा रहता हो । सुरेन्द्रों, नरेन्द्रों एवं विद्याधरों द्वारा समर्पित तथा प्राणियोंके मनको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले भोग्य-पदार्थोंसे भी जब मुझ जैसे चक्रवर्तीका चित्त सन्तुष्ट नहीं होता, तब वहाँ सामान्य व्यक्तियों की तो बात हो क्या ? योगियों का कथन है कि यह संसार सदा ही दुखोंसे भरा हुआ है ५ तथा निस्तुल लोभका गड्ढा है ( जो कभी भरा नहीं जा सकता ) । जो बहुश्रुत बुधजन हैं, वे भी विषय-वासनाओंसे खिंचे हुए भवदुखोंसे डरते नहीं हैं । यह समस्त जीव-लोक मोहान्ध-चित्त होकर अहर्निश मात्र विषय-भोगोंका ही ध्यान करता रहता है । भुवनमें वे ही गुणनिधान धन्य हैं और अखिल मध्यलोकमें वे ही प्रधान पण्डित हैं, जिन्होंने समस्त तृष्णा-भावका निर्दलन कर अपने जन्मरूपी विटपका फल प्राप्त कर लिया है । १० यथार्थं सुख के निमित्त न तो परिजन ही हैं, और न मन्त्रिगण, और न कलत्र, पुत्र, बन्धु अथवा वित्तधन ही ( सुखके निमित्त हो सकते हैं ) । अन्य दूसरे महान् भुजबलवाले भी दुर्विरूपी मुखसे किसीकी भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हो सकते । घत्ता - विषय तो विषधरकी तरह हैं, तो भी यह जीव उन्हें नहीं छोड़ता है । अहर्निश मनमें उन्हीं का चिन्तन किया करता है । संसारमें प्रकृति स्वभावसे ही दुर्मति – खोटे मनवाले १५ समस्त संसारी जनों को धिक्कार है || १६१ ॥ ८. ९. १३ ] चक्रवर्ती प्रियदत्तका वैराग्य ५ विषयों का सेवन करता हुआ भी यह जीव ( उनसे ) तृप्त नहीं होता ( क्योंकि ) जीवको प्रवृत्ति तृष्णारूप होती है । तृष्णारूपसे विनिहित हृदयवाला वह जीव अपना कुछ भी हित, अहित नहीं समझ पाता । जो रुचता है, वही किया करता है । जरा, जन्म एवं मरणके वियोगजन्य शोकको स्वयं सुनता है, विचार करता है तथा उसमें परिणित भी हो जाता है । संसार में (यद्यपि ) कुशलता से रहित है, तो भी यह जीव उपशममें रत नहीं होता । इन्द्रियोंके वशीभूत होकर भी यह नयज्ञ मनुष्य अल्प सुखके निमित्त पाप कर्मोंको करता है । वह मूढ़ अन्तरंग में दुःसह दुखरूप नाना प्रकार के परभवों को नहीं समझता । यह तारुण्य भाव तडित् - श्रीकी तरंगके समान तथा उसकी इच्छा -स्वभाव आदि तृणमें दावानलके समान यह देह विष्ठा, मूत्र एवं रुधिरकी दुर्गन्धका घर है, जो बीभत्स, विनश्वर एवं समल है। ऐसे मलिन शरीरसे कौन बुद्धिमान् व्यक्ति समस्त श्रेयस्कर कार्यों को छोड़कर बन्धु-बुद्धि रखेगा ? इस प्रकार संसारकी गतिकी अपने मनमें निन्दा कर वह १० चक्रवर्ती तत्काल ही अपने भवनसे भागा और मोक्षका मागं जाननेके लिए जिनवरकी वन्दना की । धत्ता - चतुर्निकाय के देवों, मनुष्यों एवं खेचरोंके लिए शरणभूत समवशरण में जाकर उस चक्रेशने भव्यजनों के साथ अत्यन्त भक्तिपूर्वक जिनवरकी वन्दना तथा आत्म-निन्दा की ।। १६२॥ Jain Education International १८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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