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वड्डमाणचरिउ
कविके उक्त ६ ग्रन्थोंमें-से प्रथम एवं तृतीय ग्रन्थ तो अद्यावधि अनुपलब्ध है। उनके शीर्षकोंसे यह तो स्पष्ट ही है कि वे आठवें एवं सोलहवें तीर्थंकरोंके जीवन-चरितोंसे सम्बन्धित हैं, किन्तु उनके रचनाकाल, आश्रयदाता, प्रतिलिपिकाल, प्रतिलिपि-स्थान तथा उनकी पूर्ववर्ती रचनाओंके विषयमें कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं होती। फिर भी ये दोनों रचनाएँ देहली-दीपक-न्यायसे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती 'चन्द्रप्रभ-चरितों' एवं 'शान्तिनाथ-चरितों' को आलोकित करनेवाली प्रधान रचनाएँ हैं, इसमें सन्देह नहीं। श्रीधरके पूर्व चन्द्रप्रभ-चरित एवं शान्तिनाथचरितकी अपभ्रंश-भाषामें महाकाव्य-शैली में कोई भी स्वतन्त्र-रचनाएँ नहीं लिखी जा सकी थीं। संस्कृतमें महाकवि वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित ( वि. सं. १०३२ के आसपास ) एवं महाकवि असग (वि. सं. १०वीं सदी) कृत शान्तिनाथ चरित पर्याप्त ख्याति अजित कर चुके थे। और प्रासंगिक रचनाओंमें महापुराणान्तर्गत पुष्पदन्त एवं गुणभद्रेकी उक्त विषयक रचनाएँ आदर्श थीं। विबुध श्रीधरने उनसे प्रभावित होकर अपभ्रंशमें तद्विषयक स्ततन्त्र ग्रन्थ लिखकर सर्वप्रथम प्रयोग किया तथा आगेके अपभ्रंश कवियोंके लिए एक परम्परा ही निर्मित कर दी, जिसमें रइधू एवं महिन्दु प्रभृति कवि आते हैं । यदि श्रीधर कृत उक्त दोनों रचनाएँ उपलब्ध होतीं, तो उनका तुलनात्मक अध्ययन कर संक्षेपमें उनकी विशेषताओं पर प्रकाश डालनेका प्रयास किया जाता। अस्तु, कविकी अन्य चार रचनाएँ उपलब्ध तो हैं, किन्तु वे अभी तक अप्रकाशित ही हैं। उनका मूल्यांकन संक्षेपमें यहाँ किया जा रहा है:
(३) पासणाहचरिउ प्रस्तुत हस्तलिखित ग्रन्थ आमेर-शास्त्र-भण्डार जयपुर में सुरक्षित है । कविकै उल्लेखानुसार यह २५०० ग्रन्थ-प्रमाण विस्तृत है । इसमें कुल १२ सन्धियाँ एवं २३८ कडवक हैं ।
कविने इस रचनामें भ. पार्श्वनाथके परम्परा-प्राप्त चरितका अंकन किया है। इस दिशामें यह रचना वि. सं. की १०वीं सदीसे १५वीं सदी तकके पार्श्वनाथचरितोंके कथानककी श्रृंखलाको जोड़ने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानी जा सकती है।
विबुध श्रीधरके 'पासणाहचरिउ' की आद्यप्रशस्तिके अनुसार वह 'चन्द्रप्रभचरित' की रचना करने के बाद अपने निवास स्थान हरयाणासे जब यमुनानदी पार करके दिल्ली आया तब उस समय वहाँ राजा अनंगपालका शासन था। इस अनंगपालने हम्मोर-जैसे वीर राजाको बुरी तरह परास्त किया था। इसी राजा अनंगपालके राजदरबारमें जिनवाणी-भक्त अलण नामके एक साहूसे श्रीधरकी सर्वप्रथम भेंट हुई । साहूने जब कवि श्रीधर द्वारा रचित उक्त चन्द्रप्रभ-चरित सुना तो वह झूम उठा। उसने कविकी बड़ी प्रशंसा की तथा उसी समय उसने कविको ढिल्लीके अग्रवाल-कुलोत्पन्न जेजा नामक साह तथा उसके परिवारका प्रशंसात्मक परिचय देते हुए, तीसरे पुत्र नट्टल साहूकी गुण-ग्रहणशीलता, उदारता एवं साहित्य-रसिकताकी विस्तत चर्चा की, तथा कविसे अनुरोध किया कि वह साह नद्रलसे अवश्य मिले।
१. निर्णय सागर प्रेस बम्बई (१९१२, १६२६ ई.) से प्रकाशित। २. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई (१९१७-४७) से
तीन खण्डोंमें प्रकाशित। [उसमें देखिए ४६वीं सन्धि] ३. भारतीय ज्ञानपीठ काशी (१९५१-५४) से तीन खण्डों में
प्रकाशित । [ उसमें देखिए ५४ वाँ पर्व ] ४. दे. रइघू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन [-डॉ.
राजाराम जैन] १.५७१। ५. वही. दे. प. ११६ । ६. इसको पाण्डुलिपि मुझे श्रद्धेय अगरचन्द्रजी नाहटासे प्राप्त हुई थी। उसके लिए मैं उन का आभारी हूँ।
७. पासणाह., १२।२८१४ [ दे. परिशिष्ट सं. १ (क)] ८. वही, १।२।५-१६॥ है. वही, १।४१। १०. वही, १।४।२। ११. वही, १४६। १२. वही, १।४।। १३. वही, १४८-१२ तथा ११५० १८०१-६ तथा अन्त्य प्रशस्ति।
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