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प्रस्तावना
कविने 'वड्माणचरिउ' की प्रत्येक सन्धिके अन्तमें आश्रयदाताके लिए आशीर्वादात्मक ९ संस्कृत श्लोकोंकी रचना की है, जिनमें उसने नेमिचन्द्रको सुश्रुतमति, साधुस्वभावी, भव, भोग और क्षण-भंगुर शरीर इन तीनोंसे वैराग्य-भाववाला, सुकृतोंमें तन्द्राविहीन, गुणीजनोंकी संगति करनेवाला तथा शुभ मतिवाला कहा है।
कविने उसके जीवन-संस्कारों एवं आध्यात्मिक वृत्तिका संकेत करते हुए कहा है कि "श्री नेमिचन्द्र प्रतिदिन जिन-मन्दिरमें मुनिजनोंके सम्मुख धर्म-व्याख्या सुनते हैं, सन्त एवं विद्वान् पुरुषोंकी कथाकी प्रस्तावना-मात्रसे प्रमुदित होकर नतमस्तक हो जाते है, शम-भाव धारण करते हैं, उत्तम बुद्धिसे विचार करते हैं, द्वादशानुप्रेक्षाओं को भाते हैं तथा विद्वज्जनोंमें अत्यन्त लोकप्रिय हैं।"
उक्त उल्लेखोंके अनुसार श्री नेमिचन्द्र स्वाध्याय-प्रेमी एवं विद्वान्-सज्जन तो थे ही, वे श्रीमन्त तथा राज्य-सम्मानित पदाधिकारी भी थे। कविने उन्हें 'अखिल-जगत्के वस्तु-समूहको प्राप्त करनेवाले'' ( अर्थात श्रेष्ठ व्यापारी एवं सार्थवाह ) तथा 'लक्ष्मी-पुत्रों द्वारा सम्मान्य" कहा है। वे साधर्मी जनोंको विपत्तिकालमें आवश्यकतानुसार भरपूर सहायता किया करते थे, इसीलिए कविने उन्हें 'प्रजनित जन-तोष' 'जगदुपकृति" 'सुकृतकृत-वितन्द्रो' 'सर्वदा तनुभृतां जनितप्रमोदः'सद्वन्धुमानससमुद्भवतापनोदः'' आदि कहा है।
. कवि श्रीधरने नेमिचन्द्र को दो ऐसे विशेषणोंसे विभूषित किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे राज्यसम्मानित अथवा न्याय-विभागके कोई राज्य-पदाधिकारी अथवा दण्डाधिकारी रहे होंगे। इसीलिए कविने उन्हें 'वन्दिदत्तो तु चन्द्र' तथा 'न्यायान्वेषणतत्परः' कहा है।
इसी प्रकार एक स्थान पर उन्हें 'ज्ञाततारादिमन्द्रः " कहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि वे ज्योतिषी एवं खगोल-विद्याके भी जानकार रहे होंगे।
५. रचनाएँ
जैसा कि पूर्वमें कहा जा चुका है, विबुध श्रीधरने अपने जीवन-कालमें ६ ग्रन्थों की रचना की-(१) चंदप्पहचरिउ, (२) पासणाहचरिउ, (३) संतिजिणेसरचरिउ, (४) वड्ढमाणचरिउ, (५) भविसयत्तकहा एवं (६) सुकुमालचरिउ । कविकी इन रचनाओंमें-से ४ रचनाएँ ४ तीर्थंकरोंसे सम्बन्धित हैं-चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर । श्रमण-साहित्यमें इन ४ तीर्थंकरोंके जीवन चमत्कारी घटनाओंसे ओत-प्रोत रहने के कारण वे सामाजिक-जीवनमें बड़े ही लोकप्रिय रहे हैं। विविध भाषाओंमें, विविध कालोंमें, विविध कवियोंने विविध शैलियों में उनके चरितोंका अंकन किया है। 'सुकुमालचरिउ' घोर अध्यात्मपरक तथा एकनिष्ठ तपश्चर्या एवं परीषह-सहनका प्रतीक ग्रन्थ है, जबकि 'भविसयत्तकहा' अध्यात्म एवं व्यवहारके सम्मिश्रणका अद्भुत एवं अत्यन्त लोकप्रिय सरस काव्य । इस प्रकार कविने समाजके विभिन्न वर्गोको प्रेरित करने हेतु तीर्थकर चरित, अध्यात्मपरक-ग्रन्थ तथा अध्यात्म एवं व्यवहार-मिश्रित ग्रन्थोंकी रचना कर साहित्य-जगतको अमूल्य दान दिया है।
१. एकसे लेकर हवीं सन्धिके अन्तमें देखिए। २.दे. नौवीं सन्धिके अन्तका आशीर्वचन । ३. वही । ४. वही, दे. सातवों सन्धिके अन्तका आशीर्वचन । ५. वही, दे, पाँचवीं सन्धिके अन्त में आशीर्वचन । ६. दे. चौथी सन्धिके अन्त में आशीर्वचन । ७.दे, तीसरी सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । ८. दे. दूसरी सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । १. दे. पहली सन्धिके अन्त में आशीर्वचन ।
१०. दे. वही। ११. दे. सातवीं सन्धि के अन्त में आशीर्वचन । १२. दे. तीसरी सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । १३. दे. पाँचवीं सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । १४. दे, बही। १५-१६. दे. छठी सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । १७. दे. पाँचवों सन्धिके अन्तमें आशीर्वचन । १८. दे. सातवीं सन्धिके अन्त में आशीर्वचन । १६.दे. पाँचवीं सन्धिके अन्त में आशीर्वचन ।
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