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________________ ८.७.१२] हिन्दी अनुवाद १८५ घन, रन्ध्र (सुशिर-वंशी आदि) वितत, तत (वीणा आदि ) आदि भेद-भिन्न तथा कानोंको सुखद प्रतीत होनेवाले मणियोंकी किरण-समूहसे युक्त विविध सुन्दर वाद्य उसके लिए विचक्षण शंख निधि द्वारा प्रदत्त किये जाते थे। निर्मल, कोमल, सुखकर एवं विचित्र उत्तम कांचि (लहँगा, चोली, कुरता आदि ) वाल १० परिपट्ट ( रेशमी वस्त्र ), नेत्र ( रत्न कम्बलादि ) आदि दिव्य वस्त्र पद्मनिधि द्वारा उस षट्खण्डके स्वामी चक्रवर्ती राजाको भेंट किये जाते थे। बैरीजनों द्वारा विरचित व्यूह का निर्दलन करनेवाले विविध प्रकारके भेदक, प्रहारक तथा अनेकविध चिन्तित शस्त्रास्त्र सुरासुरोंको आश्चर्यचकित कर देनेवाली दानवके समान माणव निधि द्वारा उसे प्रदान किये जाते थे। पत्ता-परस्परमें मिश्रित रत्नोंकी अन्धकारको नष्ट करनेवाली नाना प्रकारकी किरणोंसे गगनांगनमें इन्द्रधनुष बनाकर उस ( गगनांगन ) की श्रीको निरुपम बनानेवाले रत्न उस चक्रवर्तीके लिए सर्वरत्न नामक निधि द्वारा अर्पित किये जाते थे ॥१५९।। चक्रवर्ती प्रियदत्त दर्पणमें अपना पलित-केश देखता है जिस प्रकार वर्षा ऋतु नवीन मेघों द्वारा मयूरोंके मनोरथको पूरा करती है, उसी प्रकार वह चक्रवर्ती भी निरन्तर नवीन-नवीन ठोस विधियों द्वारा अपने सुख-भोगोंको पूरा करता रहा । नव-निधियों द्वारा प्रदत्त घनी समृद्धियोंको पाकर भी उसमें उद्धतता ( उद्दण्डता) नहीं आयी। जिस प्रकार नदियोंका बहकर आया हुआ नवीन भारी जल भी समुद्रको गम्भीरताको प्रभावित नहीं कर सकता, उसी प्रकार द्रव्य-सम्पत्ति भी धीर-वीर जनोंके लिए विकारका कारण , नहीं बनती। __ इस प्रकार दशांग-भोगोंको भोगते हुए भी तथा मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा नमस्कृत रहते हुए भी उस चक्रवर्तीने अपने हृदयसे धर्मकी भावनाको न छोड़ा। ठीक ही है, जो महानुभाव होते हैं, वे अपने वैभवसे विमूढ़ ( मतवाले ) नहीं होते। चक्र-श्रीसे अलंकृत रहते हुए भी वह प्रियदत्त ( साक्षात्-) प्रशम-रतिको ही सुखका कारण मानता था। जिन्होंने सम्यग्दर्शनके प्रभावसे महान् सम्पत्तिको प्राप्त किया है, उनकी व्रतोंमें अनुलग्न बुद्धि ( कभी भी ) श्रेयस्कर कार्योंको नहीं छोड़ती।। . इस प्रकार सुखपूर्वक राज्य करते हुए तथा विषय-सुखरूपी समुद्रमें स्थित रहते हुए भी जिनधर्ममें उत्कण्ठित उस चक्रवर्तीने तेरासी लाख पूर्व व्यतीत कर दिये । घत्ता-अन्य किसी एक दिन देदीप्यमान रत्नोंसे सेवित उस. चक्रवर्तीने दर्पणमें अपना मुख देखते हुए श्रुतिमूल ( कानके पास ) में केशोंमें छिपा हुआ एक नवपलित-श्वेत केश १५ देखा ॥१६०|| २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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