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________________ ८. ४. ७ ] हिन्दी अनुवाद १८१ - वह पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान सद्वृत्त ( सदाचारी, दूसरे पक्षमें गोल - मटोल ), ( समस्त ) कलाओं को धारण करनेवाला, सज्जनोंके लिए आनन्दोत्पादक तथा निराशारूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला था । समय द्वारा विभूषित उसका शरीर स्फुरायमान किया गया १० और वह अभिनव यौवनसे समृद्ध हो गया । अन्य किसी एक दिन चन्द्रमाके समान यशसे संसारको धवलित करनेवाले उस राजा धनंजयने भव्यजनों के लिए शिव-सम्पदा प्रकट करनेवाले मुनिराज क्षेमंकरके चरणोंमें प्रणाम कर उनसे एकाग्रमन होकर धर्मं सुना जिस कारण उसे तत्काल ही वैराग्य हो आया । घत्ता - ऐरावत हाथीकी सूँड़के समान भुजाओंवाले अपने उस पुत्र प्रियदत्तको राज्य १५ पर बढ़ती हुई विषय - तृष्णाका मथन कर उस धनंजयने उन मुनिराजके चरणोंमें दीक्षा ग्रहण कर ली ।। १५५ ।। ३ राजा प्रियदत्तको चक्रवर्ती - रत्नोंकी प्राप्ति समस्त नरेन्द्राधीशोंकी प्रिय, समर्थ एवं दुर्लभ लक्ष्मीको प्राप्तकर निखिल नरनाथोंके मन में किंकरत्वका भाव जगा दिया । किन्तु जो वैर धारण किये हुए थे उनका सर्वस्वापहरण कर अपने सदाचरण से उनपर तत्काल ही वह उसी प्रकार छा गया, जिस प्रकार कि भ्रमर विकसित शतदल कमलपर । इसी बीच में एक दिन अपने हाथसे देदीप्यमान स्वर्ण-कंकण धारण किये हुए वह राजा प्रियदत्त अपने प्रिय मित्रोंके साथ सभा में विराजमान था, कि उसी समय किसीने आकर, राजाओं द्वारा बहुमान्य तथा सेवित उस राजा ( प्रियदत्त ) को प्रणाम कर कहा - "हे देव, प्रहरणशाला ( शस्त्रागार ) में शत्रु चक्रका विदारण करनेमें समर्थं सहस्र आरा ( फल ) वाला चक्र उत्पन्न हुआ है, जो दिनकरके समान ही दुर्निरीक्ष्य तथा यक्षाधिप-गणों द्वारा रक्षित है ।" घत्ता—वहींपर स्फुरायमान सर्वश्रेष्ठ ( चूड़ामणि - ) रत्न, विकर्बुरित दण्डरत्न, शरदऋतु - १० कालीन आकाशकी प्रभाके समान करवाल रत्न तथा लोगोंके लिए दुर्लभ पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान श्वेत छत्र भी उत्पन्न हुए हैं || १५६ ॥ ४ राजा प्रियदत्तको चक्रवर्ती रत्नोंके साथ नव-निधियोंकी प्राप्ति भ्रमर-समूहों द्वारा रंजायमान कोषगृहों में काकिणी - मणिके साथ चर्मरत्न उत्पन्न हुए हैं । इन्हें समझकर मेरे ऊपर कृपा कीजिए । हे स्वामिन्, आपके पुण्यके फलसे ही भूवलयके मण्डनस्वरूप एवं अति स्वरूपवान् तथा शान्ति स्थापित करनेवाले ये रत्न आकृष्ट होकर आपके द्वारपर स्थित हैं - कन्यारत्न ( रानी). सेनापति रत्न, स्थपतिरत्न ( शिल्पी ), मन्त्रिरत्न ( पुरोहित ), गृहपति रत्न ( कोषागारामात्य ), तुरंग रत्न और करिरत्न ( मातङ्ग - गज ) । गौरवपूर्णं उन विभूतियोंके प्राप्त होनेपर भी निर्मंद स्वभाववाले उस राजा प्रियदत्तके मनमें किसी भी प्रकारका अहं भाव जागृत नहीं हुआ । इन सप्तरत्नोंसे समलंकृत पदवाले तथा पंचाणुव्रत धारण किये हुए उस राजासे सेवकने पुनः कहा कि हे देव, हम लोगोंपर प्रसन्न होइए, हम आपकी कृपादृष्टि चाहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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