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________________ ७. १४. १२] हिन्दी अनुवाद १७३ राजा हरिषेण द्वारा अनेक जिन-मन्दिरोंका निर्माण वह हरिषेण बुधजनों द्वारा सुधीर कहा जाता था। पृथिवी मण्डलपर ( भला ) ऐसा कौन था जिसके साथ उसकी उपमा दी जा सके। वह श्री, चन्दन, कुसुम, अक्षत, धूप, कनकवर्णवाले दीपक, चरुआ ( नैवेद्य ?) तथा पूर्वोपार्जित पुण्यरूपी फल-समूहके समान ही विविध प्रकारके पके हुए फलों द्वारा, उत्कृष्ट केवलरूपी अधिपति जिननाथकी त्रिकाल पूजा कर, बड़ी भक्तिपूर्वक वन्दना किया करता था। गृहवासमें रत रहनेवालोंके लिए उसका यही फल कहा गया है। उस राजा हरिषेणने निर्मल सुधा ( चूनेके ) रससे लिप्त, मनोहर तथा पयोधरोंका दलन करनेवाले धवलवर्णकी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त जनमनोहारी तथा अज्ञानरूपी अन्धकार-समूहका नाश करनेवाले अनेक जिन-भवनोंका निर्माण कराया। वे मन्दिर इस प्रकार सुशोभित थे, मानो इस पृथिवी मण्डलपर उस राजाकी पुण्यश्रीको साक्षात् मूर्ति ही उत्कीर्ण कर दी गयी हो। श्रद्धाभक्ति एवं तुष्टिसे युक्त निर्लोभादि गुणोंमें अनुरक्त वह ( राजा ) मुनिवर वृन्दोंको दान ( आहार ) देता था तथा श्रावकरूपी कमलोंको विकसित किया करता था। ' घत्ता--वैरियों द्वारा अजेय उस हरिषेणने अपनी तेजस्वितासे मित्रों सहित समस्त शत्रुओंको वशमें कर लिया। इस प्रकार प्रशंसित एवं प्रशम-गुण भूषित वह ( राजा ) निश्चिन्त होकर राज्य करने लगा ।।१४९।। सूर्य दिवस एवं सन्ध्या-वर्णन एक दिन उस ( हरिषेण ) के प्रतापको लक्ष्य कर तथा उसके कारण पृथिवीतलके तापको शान्त हुआ देखकर एवं लज्जित होकर सूर्यने मानो दुनय-चित्तसे अपनी आतपश्रीको स्वयं ही संकुचित कर लिया। 'मैंने इस भुवनको अपने आतप-विस्तारको दुस्सहतर किरणोंसे सन्तप्त किया है, यह खेदजनक है । इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ ही मानो उस तपन-सूर्यने तुरन्त ही अपना मुख नीचेकी ओर कर झुका लिया। नलिनीपति-सूर्यको वारुणी ( पश्चिम-दिशागमन, दूसरे पक्षमें मदिरा ) में अनुरक्त जानकर उसी समय उसे ( सूर्यको ) रोकने के लिए ही मानो दिवस उसके समीप मित्रानुक कोण (पूर्वोत्तर कोण-) में चला गया। वासरान्त-सन्ध्याकालमें दुरन्त पीडाको सहते हुए तथा तत्काल ही चबे हुए विशकमल-तन्तुओंको छोड़कर ( तथा अपना ) मुँह मोड़कर चक्रवाल युगल-चकई-चकवा ( नामक १० पक्षी ) वियुक्त होकर आक्रन्दन करते हुए मूच्छित हो गये। ___ अरुणाभ पयोधरोंसे युक्त तथा नवस्नेही प्रेमियोंके रसमानस मनोहर ( वह ) सन्ध्या इस प्रकार सुशोभित थी मानो सूर्यका अनुगमन करती हुई दीप्ति (किरणों ) रूपी स्वरूपवती वधुओंके चरणोंपर लगे हुए जपा-कुसुमका महावर ही हो। घत्ता-चक्रवाक पक्षियोंने जिस प्रकार विदिशाओंमें करुण-क्रन्दन भर दिया उसी प्रकार १५ दिशाओंमें भी। ऐसा प्रतीत होता था मानो मित्र-सूर्यके वियोगमें शोकसे सारा दिशामण्डल ही व्याप्त हो गया हो ॥१५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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