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________________ ७.१२. १२] हिन्दी अनुवाद ___ १७१ १७१ पूर्वोक्त कापिष्ठ स्वर्गदेव चयकर राजा वज्रसेनके यहाँ हरिषेण ____ नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ उस राजा वज्रसेनकी गृहिणी-पट्टरानीका नाम सुशीला था, जो शीलकी निधिके समान थी। वह ऐसी प्रतीत होती थी मानो चन्द्रमाकी प्रिया रोहिणी ही हो। हंसिनीके समान उसके ( मातृ-पितृ एवं ससुराल ) दोनों ही पक्ष समुज्ज्वल थे। उसने अपने कुटिल ( एवं काले ) केशोंसे अलिकुल एवं कज्जलको भी जीत लिया था। वे दोनों ही परस्परमें अनुपम एवं जन-मनको मोहित करनेवाले तथा एक दूसरेको पाकर सुशोभित थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो उनके रूपमें ५ मूतिमान यौवन एवं कान्ति ही उदयको प्राप्त हो गये हों। कालके वशीभूत होकर वह ( पूर्वोक्त ) लान्तवदेव स्वर्गसे चयकर इन दोनोंके यहाँ एक विख्यात पुत्रके रूप में उत्पन्न हुआ। उसे गुणश्रीसे युक्त देखकर पिताने स्वयं ही उसका नाम 'हरिषेण' घोषित किया। बान्धवोंके मनको हरण करनेवाले उस बालकको देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो अभिनव चन्द्रमा ही उदित हुआ हो । अपनी रानीके साथ वह राजा वज्रसेन (भी) हर्षको प्राप्त हुआ। पुत्र किसके लिए प्रीतिका १० निमित्त नहीं होता। जिस प्रकार नदियाँ समुद्रमें निराबाध रूपसे प्रविष्ट होती हैं, उसी प्रकार उस नवजात पुत्रके मन में भी नृप-विद्याओंने नम्र भावसे (निर्विघ्न ) प्रवेश किया। एक दिन राजा ( वज्रसेन अपने ) पुत्रको साथमें लेकर अन्तःपुरके परिजनों सहित श्रुतसागर मुनिके चरणोंमें प्रणाम कर तथा उनसे जिननाथ द्वारा कथित धर्म ग्रहण कर, पत्ता-विवेकशील बनकर ( वह ) वैराग्यसे भर गया। उसने काम-भावनाको जीतकर १५ ( तथा ) पुत्रको राज्य सौंपकर उनके समीप दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१४७॥ हरिषेण द्वारा निस्पृह भावसे राज्य-संचालन कामको जीत लेनेवाले मुनिनाथसे श्रावकके व्रतोंको लेकर ( तथा उन्हें ) प्रणाम कर सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे विराजित वह हरिषेण भी अपने घर लौट आया (यद्यपि ) पापके निमित्तसे ही राज्यकी श्री-शोभाको प्राप्त होती, उसी राज्यश्रीमें स्थित रहकर भी वह हरिषेण पापरूपी तमसमूह द्वारा छुआ तक न गया। वह राजा स्वभावसे ही परिग्रहत्यागी एवं सात्त्विक-पवित्र भावसे सरोवर-स्थित कर्दम-कमलके समान ही चारों समुद्रोंकी बेलारूपी ५ मेखलाको धारण करनेवाली तथा पर्वतोंसे व्याप्त पृथिवीका प्रतिदिन शासन कर रहा था तो भी इस अजेय (हरिषेण) के प्रति यही आश्चर्य था कि वह अपने विषयोंमें निस्पृह मति था। नवयौवन श्रीको धारण करते हुए भी उसने श्रेष्ठ उपशम श्रीको नहीं छोड़ा जिसकी बुद्धि श्रेयोमार्गमें निरन्तर लगी रहती है, क्या वह तरुण होनेपर भी उपशान्त नहीं हो जाता? वह महामति मन्त्रियों एवं उग्र परिवारसे निरन्तर घिरा हआ होनेपर शत्रओंपर वह कभी : हीं हआ १० ( ठीक ही है-) शुभ आनन्द देनेवाला चन्दन क्या सोंके मुखसे निकली हुई विषरूपी अग्निसे युक्त होकर भी ( अपना ) हिमत्व-शीतलताको छोड़ देता है ? पत्ता-सुन्दर कायवाले उस ( राजा हरिषेण ) ने युवावस्थामें विवाह किया था, तो भी वह उद्दाम-कामके वशीभूत न हुआ। उस उपशान्त वृत्तिवालेका मन विषयोंमें नहीं रमता था। वह उनसे एकदम विरक्त रहता था ॥१४८|| १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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