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________________ ७. ४.८] हिन्दी अनुवाद उस राजा कनकप्रभको सुपुष्ट एवं स्थूल स्तनवाली कनकमाला नामकी मनोहर प्रिया थी, जो निष्कलंक एवं निर्दोष शीलरूपी आभूषणसे विभूषित एवं लावण्यसे अलंकृत थी। ___ उक्त दोनों ( कनकप्रभ एवं कनकमाला ) के यहाँ वह हरिध्वज नामक ( त्रिपृष्ठका जीवसिंह ) सौधर्मदेव स्वर्गसे चयकर कनकध्वज नामक पुत्रके रूपमें जन्मा। घत्ता-जिस कनकवर्णवाले ( कनकध्वज ) के उत्पन्न होते ही कुलश्री उसी प्रकार बढ़ने १५ लगी, जिस प्रकार शुभ चन्द्रमाके उदित होनेपर तथा तमके चले जानेपर जलनिधिरूप बेल बढ़ने लगती है ॥१३८॥ राजकुमार कनकध्वजका सौन्दर्य वर्णन। उसका विवाह राजकुमारी कनकप्रभा के साथ सम्पन्न हो जाता है। उस कनकध्वजकी विशुद्ध बुद्धिने चारों राजविद्याओंको शीघ्र ही ग्रहण कर लिया। ( उसके प्रभावके कारण ) दिशा-समूह दीप्तिसे चमकने लगा, कीर्तिकी धवलिमाने चन्द्रमाको भी जीत लिया। जो यौवनरूपी श्रीके निवास-स्थलके लिए कमलके समान था, जिसके केश शैलीन्ध्रपुष्पोंसे अलंकृत थे, जिसने अन्तरंग शत्रु-काम, मद, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार आदिपर विजय प्राप्त कर ली थी, ( पाणिग्रहीता) स्त्री रत्नोंके अतिरिक्त परस्त्रियोंका त्याग कर दिया था। ५ पुरजन जिसे देखकर स्तम्भित एवं विस्मित मनवाले होकर ठिठके रह जाते थे और अपने मनमें विचार करने लगते थे कि क्या यह मूर्तिमान् मकरध्वज ही है, अथवा विशुद्ध रूप-सौन्दर्यकी अवधि ? जिस प्रकार कीचड़में फंसकर दुर्बल ढोर वहाँसे चल नहीं सकता, उसी प्रकार नगरको नयी-नवेलो-कामिनियोंकी सतृष्ण, एवं अधीर कटाक्ष-श्री भी अचल हो जाती थी। उसने अपने पिताके आदेशसे कामदेव-रूप मृगेन्द्रके लिए सुन्दर पर्वत-कन्दराके समान १० मणिगणोंसे जटित आभरणोंसे प्रसाधित श्रेष्ठ 'कनकप्रभा' नामक कन्याके साथ विवाह कर लिया। घत्ता-लोकके सन्तापका हरण करनेवाला वह कनकध्वज ( नवागत) सलज्ज भार्याके साथ उसी प्रकार सुशोभित हुआ, जिस प्रकार महीतलपर नवीन जलधर बिजली ( की कौंध ) के साथ सुशोभित होता है ॥१३९॥ कनकध्वजको हेमरथ नामक पुत्रको प्राप्ति वे दोनों ही प्रेमपूर्वक एकनिष्ठ होकर रहते थे, परस्परके विघटन-वियोगको क्षण-भर भी सहन नहीं कर सकते थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह (जोड़ा ) लावण्य-विशेषसे अलंकृत अहर्निश निःशंकि जलधिका वलय ही हो। वह कनकध्वज सघन वन-काननमें स्थित मनोहर लतागृहमें नव-पल्लवोंसे बनी शय्यातलपर लेटी हुई प्रणय कोपकी वशीभूत, कम्पित ओठवाली एवं उत्तंग पयोधरा उस मानिनी प्रियाको मनाता रहता था। उस प्रियाके साथ वह प्रिय कनकध्वज देव सदृश विमानसे देवों द्वारा सेवित सुन्दर मन्दराचलपर जाकर बड़ी भक्तिपूर्वक द्विरेफ-भ्रमर-समूहसे युक्त उत्तम जातिके पुष्पोंसे जिनगृहोंकी पूजा किया करता था। किसी एक दिन संसारसे भयभीत नरेन्द्र कनकप्रभने अपने पुत्र कनकध्वजको 'नृपश्री' देकर सुमति नामक मुनीश्वरके चरणोंमें प्रणाम कर इन्द्रियरूपी शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर दीक्षा ले १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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