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________________ प्रस्तावना ४. ‘भविसयत्तकहा’में कविके लिए 'कवि' और 'विबुधे' ये दोनों उपाधियाँ मिलती हैं तथा 'भविसयत्तचरिउ' में कवि व विबुधैके साथ-साथ 'मुनि' विशेषण भी मिलता है । उक्त दोनों रचनाओंकी उक्त साम्यताओंको ध्यान में रखते हुए इस विषय में गम्भीर शोध-खोजकी आवश्यकता है । मेरी दृष्टिसे उक्त दोनों ही रचनाओंकी आश्रयदाताओं तथा उनकी वंश-परम्पराओंकी सादृश्यताको एक विशेष संयोग ( Accident ) मात्र कहकर टाला नहीं जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी लिपिक प्रमाद अथवा भूलसे रचना - कालके उल्लेखमें कुछ गड़बड़ी अथवा परिवर्तन हुआ है । चूँकि ये दोनों मूल रचनाएँ मेरे सम्मुख नहीं हैं, अत: इस दिशामें तत्काल कुछ विशेष कह पाना सम्भव नहीं, किन्तु यदि भविसयत्तचरिउ १२३० वि. सं. की सिद्ध हो सके तो 'भविसयत्तकहा' के कर्ताके साथ उसकी संगति बैठायी जा सकती है । यद्यपि उस समय यह प्रश्न अवश्य ही उठ खड़ा होगा कि एक ही कवि एक ही विषयपर एक ही भाषामें एक ही आश्रयदाताके निमित्तसे दो-दो रचनाएँ क्यों लिखेगा ? किन्तु उसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि कोई कवि एक ही विषयपर एक ही रचना लिखे । एक ही कवि विविध समयों में एक ही विषयपर एकाधिक रचनाएँ भी लिख सकता है क्योंकि तो 'बहुत कुछ कवियोंकी अपनी क्षमता-शक्ति, श्रद्धा एवं नवीन नवीन साहित्य-विधाओंके प्रयोगों के प्रति उत्कट इच्छापर निर्भर करता है । 'भविसयत्त कहा' में श्रीधरको विबुध एवं कवि कहा गया है तथा 'भविसयत्तचरिउ' में उसे विबुधके साथ-साथ मुनिकी उपाधि भी प्राप्त है । हो सकता है कि 'भविसयत्त कहा' की रचना उसने अपने आश्रयदाताकी प्रेरणासे मुनि बननेके पूर्व की हो तथा 'भविसयत्तचरिउ' की रचना उसने अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु तथा 'पंचमीव्रतकथा' को और भी अधिक सरस एवं मार्मिक बनाने हेतु कुछ परिवर्तित शैली में उसी आश्रयदाताकी प्रेरणा से मुनिपद धारण कर लेनेके बाद की हो । वस्तुतः इन तथ्योंका परीक्षण गम्भीरताके साथ किये जाने की आवश्यकता है । यह २. रचनाकाल उक्त तथ्योंको ध्यान में रखते हुए यदि विवादास्पद समस्याओंको पृथक् रखकर चलें, तो भी यह निश्चित है कि उक्त पासणाहचरिउ, वडमाणचरिउ, सुकुमालचरिउ एवं भविसयत्तकहा [ तथा अनुपलब्ध चंद पहचरिउ एवं संतिजिणेसरचरिउ ] के कर्ता अभिन्न हैं और उक्त उपलब्ध चारों रचनाओं में निर्दिष्ट कालोंके अनुसार विबुध श्रीधरका रचनाकाल वि. सं. १९८९ से १२३० निश्चित होता है । ३. जीवन-परिचय एवं काल-निर्णय 'वढमाणचरिउ' की आद्य एवं अन्त्य प्रशस्तियोंमें कविका उपलब्ध संक्षिप्त जीवन-परिचय पूर्व में लिखा जा चुका है। चंदप्पहचरिउ एवं संतिजिणेसरचरिउ नामकी रचनाएँ अनुपलब्ध ही हैं, अतः उनका प्रश्न नहीं उठता । सुकुमालचरिउ और भविसयत्तकहामें भी कविका किसी भी प्रकारका परिचय नहीं मिलता । संयोगसे कविने अपने 'पासणाहचरिउ' में 'वड्डूमाणचरिउ' के उक्त जीवन-परिचयके अतिरिक्त स्वविषयक कुछ अन्य सूचनाएँ भी दी हैं जिनके अनुसार वह हरयाणा देशका निवासी' अग्रवाल जैन था । वह वहाँसे यमुना १. भविसयत्त कहा ( अप्रकाशित ) - १०२२६, [ दे प्रस्तुत ग्रन्थकी परिशिष्ट सं. १ ( ग ) ] २. दे. भविसयत्तकहाकी पुष्पिकाएँ। यथा - विबुह सिरि सुकइ सिरिहर विरइए... ३५. भविसयत्तचरिउ ( आमेर प्रति ) - अम्भस्थिवि सिरिहरु कइगुण सिरिहरु १।३।११ । सुम्पटु अहिणंद जिण-पय बंदउ तब सिरिहर मुणि भत्तउ । १।४।१५ [ सन्दर्भों के लिए दे, जै प्र प्र संग्रह, द्वितीय भाग, प. १४६ ] ६ पासणाह, ११२।१४ Jain Education International ७. पासणाह. १२/३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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