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________________ ६. ८. १३ ] हिन्दी अनुवाद ७ अर्ककति अपने पुत्र अमिततेज और पुत्री सुताराके साथ प्रभा स्वयंवर में पहुँचता है "अपनी बुद्धिसे विचार कर मैं तुम्हें स्पष्ट कहता हूँ कि निर्दोष प्रयत्न करके उस कन्या की अनिच्छापूर्वक यदि उसे किसी विद्याधर अथवा मनुष्य वरके लिए प्रदान कर भी दें तो क्या ( उसका ) उसके साथ अनुराग बढ़ेगा ? हे कृष्ण, यही जानकर तुम अविरोध रूपसे स्वयंवर रचो, जिससे वह चन्द्रमुखी कन्या ही अपने योग्य वरका वरण कर सके ।" अन्धकारको नष्ट करनेवाले मनोहर कृष्णको यह जनाकर बलदेव मन्त्रियोंके साथ बाहर चले गये । कृष्ण और बलदेव ( त्रिपृष्ठ और विजय ) ने अपने दूतोंके द्वारा वरकी खोज हेतु स्वयंवर सम्बन्धी वृत्तान्त प्रसारित कर दिया । १४७ यह सुनकर निष्कलंक ( चरित्रवाला) रविकीर्ति अपने पुत्र अमिततेज तथा सुन्दर पुत्री ताराके साथ उस स्थानपर पहुंचा, जहाँ विद्याधरोंने स्वयंवर रचाया था, तथा नाना प्रकारके नर श्रेष्ठोंसे व्याप्त, आते-जाते हुए लोगों के कोलाहल से युक्त, तोरणोंके भीतर शत्रु-जनोंके भुजबलका १० अपहरण करनेवाले कृष्ण और बलदेवको देखा । चक्री - त्रिपृष्ठके निर्मल चरण-कमलोंमें नमस्कार कर उनके दर्शन करके उन्होंने अपने नेत्रोंको पवित्र किया । कृष्ण-बलदेवने भी आनन्दित होकर तत्काल ही दुर्लभ उन दोनों ( रविकीर्ति एवं अमिततेज) को अपने भुजदण्डों से आलिंगित कर लिया । धत्ता - अकंकीर्तिकी पुत्री सुताराने नृप त्रिपुष्ठके चरणोंका स्पर्श किया । लोकमें अत्यन्त १५ रमणीक उस कन्या को देखकर विजय ( -बलदेव ) भौंचक्का रह गया ॥ १२४ ॥ ፡ श्रीविजय और सुतारामें प्रेम-स्फुरण (त्रिपृष्ठ - पुत्र) श्रीविजय के साथ विजयने अर्कैकीर्तिको नियमानुकूल नमस्कार कर मधुरवाणी में वार्तालाप किया । अपने गम्भीर गुणोंसे समुद्रको भी जीत लेनेवाला वह अर्ककीर्ति भी उस (श्रीविजय एवं विजय ) को देखकर बड़ा सुखी हुआ । ५ Jain Education International ५ पुनः हरि हलधरने उत्साहपूर्वक लक्ष्मीगृह के समान सुख देनेवाले राजगृह ( राजभवन ) में उन्हें ( अकीर्ति, अमिततेज एवं सुताराको ) प्रविष्ट कराया। सिर झुकाकर प्रणाम करती हुई मनोरमा प्रियदर्शनी स्वयंप्रभाके लिए अकंकीर्तिने आशीष दी । एकाग्र चित्तवाले अमिततेज तथा स्नेह विह्वल सुताराने स्वयंप्रभाके चरणोंका दर्शन कर उसे प्रणाम किया । अपने पुत्र-युगल के साथ मनोहरा स्वयंप्रभाका यह संयोग ( पूर्व ) पुण्यका फल ही था । विविध सुखकारी, प्रणयस्थिता तथा अनुकूल स्वयंवरसे विधुनितहृदया चक्रवर्तीकी वह कम्पितहृदया पुत्री द्युतिप्रभा अमिततेजके प्रति आकर्षित हृदयवाली हो गयी. ऐसा प्रतीत होता १० था मानो यह कार्यं उसने अपनी माताकी इच्छानुसार ही किया हो । प्रेममें आसक्त ( यह ) मन ( नियमत: ही ) पहले से ही अपने पतिको जान लेता है । श्रीविजयके आकर्षित मनने सुताराको भी सहसा ही क्षुब्ध कर दिया। उस सुताराका दीर्घं निःश्वासपूर्ण उद्वेग देखकर श्रीविजयने अपना भाव भी व्यक्त कर दिया । धत्ता - इसी बीच में सखियों सहित वह द्युतिप्रभा सुखनिधान सुन्दर स्वयंवर स्थलपर १५ पहुँची ॥ १२५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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