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________________ ५. २३. २१ ] हिन्दी अनुवाद तुमुल-युद्ध-त्रिपृष्ठ द्वारा हयग्रीवका वध दुवई इस प्रकार अपनी सामर्थ्यवाले आयुधोंको विगलित हुआ देखकर उस हयगलने रिपु-चक्रका घात करनेवाले ( अपने ) धारावलि चक्रको हाथमें ले लिया और रणक्षेत्रमें कलबलाता हुआ इस प्रकार बोला "अब यह चक्र तेरे चिन्तित ( मनोरथ ) को चूरेगा। धरणेन्द्रके बलसे अब इन्द्र भी ( तेरी। रक्षा करने में ) असमर्थ रहेगा। अतः अपनी सुरक्षा हेतु मेरे चरणोंका स्मरण कर।" हयग्रीवका ५ यह कथन सुनकर गरुडकेतु ( त्रिपृष्ठ ) बोला-'तेरा यह कथन भीरुजनोंको भले ही भयभीत कर दे, किन्तु धीर-वीर शूरोंके लिए व्यर्थ है। वन्य गजोंकी गर्जना जंगलके श्वापदोंके लिए निरन्तर ही भीषण होती है, किन्तु सिंहके लिए कदापि नहीं। कौन ऐसा शूरवीर है जो तेरे इस चक्रको मानेगा? मुझे तो वह ( मात्र ) कुलाल-चक्रके समान ही प्रतीत होता है।'' उस त्रिपृष्ठकी वचनरूपो अग्निसे सन्दीप्त, मनुष्यों एवं नभचरों द्वारा अवलोकित उस निजित-ग्रीव यकन्धरने गल- १० गर्जना कर अपना चक्र छोड़ दिया। अपनी किरण-समूहसे स्फुरायमान उस चक्रने आकाशको उयोतित कर दिया, वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो प्रलयचक्र ही हो। जब पंचानन-सिंह विरोधी त्रिपृष्ठके हाथपर वह चक्र चढ़ा तब देवोंने कोलाहल किया। उस चक्रको लेकर त्रिपृष्ठने उस तुरगगलसे कहा--"मेरे चरणकमलों में सिर झुकाकर प्रणाम करो," अपने स्वरसे पर्वतीय अंचलोको व्याप्त कर देने वाले विजयके अनुज-त्रिपृष्ठने जब यह कहा तब हत-बुद्धि वह हयगल १५ अपने भुजयुगलके बलको तौलकर त्रिपृष्ठके उस कथनको सहन न कर सका और बोला- "तू कौन है जो अपने आप ही अपनेको राजा मान बैठा है। मुझे तो तू दीन-हीनकी तरह ही प्रतिभासित होता है।" तब हरि--त्रिपृष्ठने कहा कि अरे नीच (मेरे राजा बनने में) अधुक्त क्या है ? तू तो रणनीतिका एक सूत्र भी नहीं जानता है। रे कायर, नय-नीतिविहीन, तू क्या बोल रहा है ? तु तो मुझे नित्य ही दीन-हीन-जैसा दिखाई देता है। देवों, दानवों तथा खेचरों एवं मानवों दोनों- २० की सेनाओंके देखते-देखते ही मुकुट-मणियोंकी कान्तिसे देदीप्यमान तेरा अनुपम शोश आज ही तोड़ डालँगा। घत्ता--इस प्रकार कहकर विजयके अनुज-त्रिपृष्ठने नेमिचन्द्रके कुन्दोज्ज्वल यशके समान धवल वर्णवाले चक्रको हाथमें लेकर उस हयग्रीवके सिरको चक्रसे फोड़ दिया, जिससे श्रोणित (रक्त ) रूपी जल उछल पड़ा ।।११७।। २५ पाँचवीं सन्धि समाप्त इस प्रकार प्रवर-गुण-समूहसे भरे हुए विबुध श्री सुकवि श्रीधर द्वारा विरचित साधु स्वभावी श्री नेमिचन्द्र द्वारा अनुमोदित श्रीवर्धमान तीर्थकर देवके चरितमें त्रिपृष्ठ और . विजयका विजयलाम नामक पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त हो गया ॥ आशीर्वचन जगत्के उपकार करने में विशाल, जिनेन्द्रके पादाचनमें इन्द्र, सुकृतोंके करने में तन्द्राविहीन, वन्दियों द्वारा स्तुत, गुणगणोंसे सान्द्र, तारादि ग्रह-नक्षत्रोंके जानकार अपने कुलरूपी कुमुदके लिए चन्द्रमाके समान नेमिचन्द्र आनन्दित रहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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