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५.२०.१४]
हिन्दी अनुवाद उसके एक ही दीर्घ एवं फैलनेवाले बाणने उस ( अकीर्ति ) के छत्र एवं ध्वजाका छेदन कर दूसरे बाणने उसके मुकुटकी प्रज्वलित मणिका उन्मूलन कर उसे भूमिपर गिरा दिया। तब अर्ककीर्तिने अपने भालेसे उस हयग्रीवकी कोदण्ड-कोटि तोड़कर उसे धूलमें मिला दिया। यह देखकर उस १० हयग्रीवने दारुण दुष्ट भावपूर्वक अपना सुन्दर धनुष चला दिया। तब उधर शिखिगत (ज्वलनजटी) के कवचधारी पुत्र ( अर्ककीर्ति ) ने नाराचों द्वारा उस हयग्रीवको घायल ही कर डाला। वह गम्भीर अर्ककीति रणरंगमें किस प्रकार गरजा ? ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि वर्षाऋतुमें नव जलवाहन (-नवीन मेघ )।
पत्ता-युद्धमें शत्रुजनों द्वारा दुर्जेय कामदेवको पोदनपुरनाथ ( राजा प्रजापति ) ने उसी १५ प्रकार जीता, जिस प्रकार कि इस पृथिवी-मण्डलपर चिरकाल तक तपस्या करते हुए जिनेन्द्र आदिनाथने कामदेवको जीता ॥११३।।
तुमुल-युद्ध-ज्वलनजटी, विजय और त्रिपृष्ठ का अपने प्रतिपक्षी शशिशेखर, चित्रांगद ,नीलरथ और हयग्रीवके साथ भीषण युद्ध
दुवई (अर्ककोतिके पिता-) शिखिजटी (-ज्वलनजटी) ने रणरंगमें शशिशेखर ( नामक विद्याधर ) के दर्पको चूर कर दिया। इधर सन्तोषको प्राप्त प्रतिहरि अश्वग्रीव विजयकी अभिलाषासे रणांगणमें आया।
चित्रांगद आदि सात सौ मनोहर विद्याधरोंको जीतकर मणियोंसे सुशोभित विजयने नीलरथ ( विद्याधर ) की ओर अनिष्ट-जनक दृष्टिसे देखा। हरिणाधीश-त्रिपृष्ठ भी पुष्कर जल- ५ कणोंसे सूर्यका सिंचन करनेवाले वन्य मातंगपर सवार हुआ। इस प्रकार अपने-अपने भुजबलसे भट-समूहको भगा देनेवाले, पूर्व एवं पश्चिम समुद्रकी तरह बढ़े हुए पराक्रमके धारक, कोपाग्निरूपी ज्वाला-वलयसे प्रज्वलित, निर्भीक एवं चारु-चित्तवाले वे दोनों-त्रिपृष्ठ एवं विजय युद्धके लिए तैयार हो गये।
अपनी शिक्षा-विशेषसे सुरेश–इन्द्रको भी सन्तुष्ट करके उस विद्याधर ( हयग्रीव ) ने अपने १० नाना रूपोंका विस्तार करते हुए पराक्रमी बलदेवके दीप्त एवं चलायमान हारसे सुशोभित सुन्दर वक्षस्थलको गदासे विनिहत कर दिया। तब अवसर पाकर गदाघातके कारण गर्जते हुए उस (विजय) ने देखते-देखते ही खेचरेश्वर ( हयग्रीव ) के जनमनोहारी, मणि-किरणोंसे स्फुरायमान सिर-शेखरको उसी प्रकार भूमिमें गिरा दिया, जिस प्रकार कि वज्रमेघ पर्वत-शिखरको भूमिपर गिरा देता है।
पत्ता-उस हयग्रीवके शेखर (मुकुट) से धीरे-धीरे गिरती हुई मुक्ता-मणियों द्वारा रणांगण इस प्रकार सुशोभित था, मानो ( वे मणियाँ ) खेचराधिपरूपी सरिताके जल-प्रवाहके सुन्दर जलकणोंकी विस्तार ही हों ॥११४।।
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