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________________ ५. ६. १५] हिन्दी अनुवाद ११७ दूसरा कोई उसे समझाता है, और फिर भी वह उसे समझना नहीं चाहता। विकराल दाढ़वाला ५ विराल (-बिलाव ) अपनी जिह्वाके वशीभूत होकर दुग्धपान तो करना चाहता है, किन्तु वह दुर्मति अत्यन्त दुस्सह एवं शरीरको तोड़-मरोड़कर रख देनेवाले घनके समान डण्डेके प्रहारको नहीं देखता। जिसने रणभूमिमें शत्रुकी नाराचराजि-बाणपंक्तिको जोड़ते हुए कभी भी नहीं देखा, वह बेचारा विजय अपने स्वाभाविक पौरुषको क्यों ( व्यर्थ ही ) सुखा डालना चाहता है ? वह सुन्दर वर्णों में अयुक्ति-संगत कथन क्यों कर रहा है ? घत्ता-जैसा मुखसे कहा जाता है, वैसा क्या कोई युद्ध में भी ( अपना ) पराक्रम दिखा सकता है ? जिस प्रकार मेघ कानोंको भयंकर लगनेवाली गड़गड़ाहट करता है, क्या वैसी ही जलवर्षा भी करता है ? ॥९९।। हयग्रीवके पराक्रमकी चुनौती स्वीकार कर त्रिपृष्ठ अपनी सेनाको युद्धकी तैयारीका आदेश देता है दुवई अपने अन्तःपुरसे ( बैठे-बैठे ही ) जिस किसी प्रकार अपनी इच्छानुसार युद्धकी बात रचायी जा सकती है, किन्तु ( महिलाके ) तीक्ष्ण-भ्रू-भंगोंसे भी डर जानेवाला भट युद्ध भूमिमें शत्रुवीरोंका सामना कैसे कर सकता है ? जिसने समस्त शत्रु-वर्गको वशमें कर लिया है, अपने निर्मल-यशसे धरानको धवलित कर दिया है; बन्धु-बान्धवों सहित जिसने बुधजनोंको अपने सद्गुणोंसे रंजित कर लिया है, समरांगणमें ५ धनुष-बाण लेकर जो उड़ता रहता है, ( अर्थात् वेगपूर्वक बाण-वर्षा करता है )। जिसने अपने गाम्भीर्यादि-गुणोंसे समुद्रको भी जीत लिया है, क्षुद्र चुगलखोरों एवं दुर्जनोंको जिसने बलपूर्वक दण्डित किया है। जिसने अपने शारीरिक तेजसे दिनेन्द्रको भी निस्तेज कर डाला है। तथा अपने बल ( सेना) के भारसे जिसने फणीन्द्रको भी चाँप दिया है। वन्दीजनोंको उरु-दानसे जिसने छिन्न कर दिया है, जिसने अपने प्रयत्नोंसे शत्रुजनोंके मनके रहस्योंको भी भेद लिया है। मणिमय १० कुण्डलोंसे मण्डित कर्णवाले उस अश्वग्रीवके समान अन्य कोई दूसरा युक्तिवान् नहीं कहा जा सकता। "अपनी तीक्ष्ण खड्गधाराकी किरणावलिसे दीप्त अश्वग्रीवने पृथिवीके विद्याधरोंके मनको आतंकित कर दिया है, जो यक्ष द्वारा रक्षित है तथा जिसने वैरि-चक्रका क्षय कर डाला है। क्या उसके सहस्र आरावाले चक्रको नहीं जानते ?" यह कहते हुए जब ( हयग्रीवका वह ) दूत १५ रुक गया, तब स्वभावसे ही सुन्दर वह पुरुषोत्तम-त्रिपृष्ठ बोला-"उसका एवं मेरा विशिष्ट पराक्रम तो युद्धके बिना नहीं जाना जा सकता।" इस प्रकार कहकर उसने उस दूतको विदा कर दिया। जब मान-मदित वह दूत चला गया, तब तत्काल ही उस त्रिपृष्ठने युक्तिपूर्वक ( युद्ध हेतु) आज्ञा दे दी। पत्ता-गम्भीर घोषवाले रणभेरीके शब्दोंसे समस्त दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं तब भयसे २० कम्पित शरीरवाले गगनचरों एवं नरवरोंके चित्त विमर्दित हो गये ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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