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________________ ५. ५.८ ] हिन्दी अनुवाद ११५ धत्ता - उपर्युक्त संसर्गको देखकर दुर्जन व्यक्ति स्वयं ही अकारण कोप करने लगता है । किन्तु आकाशमें निर्मल ज्योत्स्नाको देखकर क्या कोई उसपर मल-मूत्र फेंकता है ?” ॥९७॥ ४ . विजय हयग्रीवके असंगत सिद्धान्तोंकी तीव्र भर्त्सना करता है। दुवई " मदसे युक्त, अविवेकमें पड़ा हुआ जो व्यक्ति कुमार्गकी ओर जाता है, वह निश्चय ही रहित पशु है । अवसर आनेपर वह किसके द्वारा दण्डित नहीं किया जाता ? प्रार्थना-विधि जीवित रहता है तथा याचनाकी युक्ति पूर्वक जो स्वाभिमान हीन होकर माँगता फिरता है, वह प्रार्थना - विधिवाला तुरगग्रीव सोचता है कि इस पृथिवी - मण्डलपर उससे बढ़कर अन्य कोई है ही नहीं । अपने आपको 'सुन्दरतर श्रीसे विभूषित' कहता हुआ मैं ५ 'दुर्जेय हूँ' इस प्रकारका अहंकार करता हुआ, जो अकारण ही दूसरोंका तिरस्कार करता चलता है, वह अधम ( भला ) कितने समय तक जीवित रहेगा ? ऐसे व्यक्ति सज्जनों की हँसीके पात्र ही बनते हैं । विद्वज्जन तो उन व्यक्तियोंके जन्मकी प्रशंसा करते हैं, जो मोहके कारण मायायुक्त नहीं होते और जिनका मन रमणीके कारण प्रमादयुक्त नहीं होता । सज्जन मन तो उस दर्पणके समान है जो वृत्तता ( सदाचार - दूसरे पक्षमें गोलाई ) को धारण करता हुआ तथा भूति ( वैभव, १० ऐश्वर्य, दूसरे पक्ष में भस्म का संगम पाकर निर्मलताको धारण करता है । ( इसके विपरीत ) दुष्ट चित्त दुर्जन श्मशान भूमि में गाड़े गये शूल समान भयंकर होता है । मदके कारण वेदना-शून्य स्वभाववाला हाथी भी निश्चिन्त होकर पोखरमें अपना पाँव नहीं डालता । तब तुम ही कहो कि क्षेम रहित महान् मदोन्मत्त चित्तवाला तुम्हारा अतृप्त स्वामी, क्या यह सब ( कर्तव्याकर्तव्य ) नहीं जानता ? १५ धत्ता - बाप रे, ऐसा कौन दुर्गंति होगा, जो अकारण ही नेत्रोंसे निकलती हुई दुस्सह एवं दुखद विषशिखावाले भुजंगके फणिकी मणिको छीन लेनेकी इच्छा करेगा ? ॥२८॥ ५ हयग्रीवा दूत त्रिपृष्ठको समझाता है दुवई जंगली हाथियों के झुण्डका लीलाओंमें ही दलन कर देनेके कारण बिखरी हुई सटावाले सिंहके सो जानेपर क्या जम्बुक ( शृगाल ) उसकी सटाको लोंच लेता है ? जिसके मनकी अभिलाषाएँ न्याय-नीति विहीन हैं, वह दीनहीन ( अधम ) विद्याधर कैसे कहा जायेगा ? ऊँचाईको धारण करनेवाले उस आकाशसे क्या जिसमें उड़कर कौवा भी अपने शरीरको कँपाता हुआ जिसे छोड़कर भाग जाता है । इस प्रकार न्यायपूर्ण एवं निरुत्तर कर देनेवाला कथन कर जब वह विजय चुप हुआ तब श्रीपति त्रिपृष्ठके सिंहासनकी ओर खिसककर मात्सर्यधारी वह ( हयग्रीवका ) दूत (त्रिपृष्ठसे ) बोला - " इस संसार में जिनका चित्त विवेकसे विहीन है वे अपने हितको नहीं पहचान सकते, इसमें मुझे कोई भी आश्चर्य नहीं है । किन्तु मुझे तो उस समय आश्चर्य होता है, जबकि, बाप रे, Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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