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________________ 10 15 १०८ परि-दूरुज्झिय वाणासण-सैर विगय जंतु कुरु करहु महीयलु देहि कंडवडु अवणय रहवरु हि सहु वणिकाइँ नियच्छहिँ इय मिच्चयणु ससामिहिं वृत्तउ नरवर-विंदइ पविसज्जते । किय पयज्जणिसुतहुँ सव्वहँ Jain' Education International वडमाणचरिउ ३. D. रस । मरु-धुध-सेय-पसुत्तणरेसर । पीयहिँ सम्मज्जहिं जलु सीयलु । इत्थु णिवज्झइ सुंदरु हयवरु । तण-जल-कंठएँ- तेलहु गच्छहिँ । किंकरु होइ न अप्पाइत्तउ । यि निवासि हरिणास हूँ जंतें । सामंत मंडलियाँ भव्वहँ । घत्ता - तोडेवि गलु हयगलु जइ न खउ णेमिचंद जसु पयडमि । जण मण हरु सिरिहरु परिहरिवि ता हुववह मुहि निवडमि ॥ ९४ ॥ इ सिरि-वड्ढमाण- तित्थयर-देव-चरिए पवर-गुण-रयण-नियर भरिए विवुह - सिरिसुकइ - सिरिहर विरइए साहु सिरि-णेमिचंद अणुमणिए सेणाणिवेसवित्थरणो णाम चउत्थो - परिछेओ समत्तो ॥ संधि ४ ॥ [ ४. २४. ९ श्रीमज्जिनाधिप-पद-द्वयगन्धवारि - धाराभिवन्दनपवित्रितसर्वगात्रः । गीर्वाणी गुणगुण-संग-कारी जीयाच्चिरं चतुरधीरिह नेमिचन्द्रः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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