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परि-दूरुज्झिय वाणासण-सैर विगय जंतु कुरु करहु महीयलु देहि कंडवडु अवणय रहवरु हि सहु वणिकाइँ नियच्छहिँ इय मिच्चयणु ससामिहिं वृत्तउ नरवर-विंदइ पविसज्जते । किय पयज्जणिसुतहुँ सव्वहँ
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वडमाणचरिउ
३. D. रस ।
मरु-धुध-सेय-पसुत्तणरेसर । पीयहिँ सम्मज्जहिं जलु सीयलु । इत्थु णिवज्झइ सुंदरु हयवरु । तण-जल-कंठएँ- तेलहु गच्छहिँ । किंकरु होइ न अप्पाइत्तउ । यि निवासि हरिणास हूँ जंतें । सामंत मंडलियाँ भव्वहँ ।
घत्ता - तोडेवि गलु हयगलु जइ न खउ णेमिचंद जसु पयडमि । जण मण हरु सिरिहरु परिहरिवि ता हुववह मुहि निवडमि ॥ ९४ ॥
इ सिरि-वड्ढमाण- तित्थयर-देव-चरिए पवर-गुण-रयण-नियर भरिए विवुह - सिरिसुकइ - सिरिहर विरइए साहु सिरि-णेमिचंद अणुमणिए सेणाणिवेसवित्थरणो णाम चउत्थो - परिछेओ समत्तो ॥ संधि ४ ॥
[ ४. २४. ९
श्रीमज्जिनाधिप-पद-द्वयगन्धवारि - धाराभिवन्दनपवित्रितसर्वगात्रः । गीर्वाणी गुणगुण-संग-कारी जीयाच्चिरं चतुरधीरिह नेमिचन्द्रः ॥
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