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________________ ४. २०. १५ ] हिन्दी अनुवाद १०३ इनके साथ ही समरांगणमें दुर्जेय शत्रुजनोंकी भुजाओंको तोड़ देनेवाली हरिवाहिनी, वेगवती आदि समस्त विशुद्ध एवं सुप्रसिद्ध पांच सौ विद्याएँ सात दिनमें ही उस (विजय) के वशीभूत हो गयीं। इस प्रकार विद्याओंसे अलंकृत विजयके अनुज उस त्रिपृष्ठको राजा प्रजापति ५ एवं खेचरराज ज्वलनजटीने अपनी तलवारोंसे क्रूर-करीन्द्रोंका विदारण करनेमें समर्थ समस्त विद्याधरों एवं राजाओंमें शिरोमणि घोषित कर दिया। इसी बीचमें संग्राममें शत्रुके हननके लिए जानेकी इच्छावाले, उस त्रिपृष्ठकी श्री-समृद्धिको कामनासे तोरण एवं ध्वजा-पताका आदिसे नगरको सजाया गया। अपने उस नगरसे निकलते समय राजाओं एवं विद्याधरोंके दानसे आनन्दित रत्नाभरणोंसे अलंकृत, अपनी समस्त सेनासे १० परिचरित, मंगलकारी शुभ-शकुनोंसे समृद्ध, निःशेष अवनितलपर प्रसिद्ध उस त्रिपृष्ठपर, भवनोंके आगे खड़ी होकर अपनी भृकुटियोंसे देवोंको भी स्तम्भित कर देनेवाली सीमन्तिनियाँ चारों ओरसे अपने मदमाते नयनोंके साथ-साथ लावांजलियाँ फेंकने लगीं। पत्ता-ऐसा प्रतीत होता था, मानो उन लावोंके रूप में इन दुर्जेय त्रिपृष्ठकी अमलकीर्ति ही विस्तारी जा रही हो। अथवा मानो समरके मुखमें आये हुए शत्रुके तेजका ही निवारण किया १५ जा रहा हो ॥८९|| त्रिपृष्ठका सदल-बल युद्ध-भूमिकी ओर प्रयाण मलया हाथियोंपर लगी हुई गगन में फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे केवल निर्मल आकाश हो नहीं ढक गया था। अपितु इस संसारमें अन्य दूसरे महाराजाओंके लिए दुस्सह, चक्रवर्तीके कुलरूपी आकाशका समस्त तेज भी ढक गया था। हींसते हुए एवं समुद्र-तरंगोंको भी जीत लेनेवाली उत्तं ग तुरगोंकी चपलतासे उन ( घोड़ों) के तीव्र खुरोंसे आहत होकर उड़नेवाली धूलिसे मात्र गगन ही मलिन ५ नहीं हुआ अपितु शत्रुका यशरूपी शरीर भी मलिन हो गया। सेनाके पद-भारसे पीड़ित होकर मात्र धरणी ही चलायमान न हुई अपितु पवनाहत होकर हरिके हृदयसे निर्मल लक्ष्मी भी चलायमान होकर भाग गयी। प्रतिपक्षी-हाथियोंके मनके दर्पका निवारण करने में समर्थ, मद-जलस्रावी हाथी पीलवानोंके वशीभूत होकर ही निकले, मानो प्रलय-कालमें महान् दिग्गज ही मिल बैठे हों। तीक्ष्ण खुरोंसे पृथिवीको क्षत करनेवाले, मनोहर स्कन्धोंसे युक्त फेनसे भरे हुए मुखवाले तथा तुंग १० शरीरवाले, घोड़े सवारों सहित चले। विविध आयुधोंसे परिपूर्ण, फेरोंसे रहित उत्तम घोड़े जुते हुए रथ भी चले। अपने मनमें इच्छित सुन्दर वाहनपर चढ़कर वह त्रिपृष्ठ भी शीघ्र ही रणके भारका निर्वहन करने हेतु चला । घत्ता-दुसरेकी पथिवीका अपहरण करनेवाले योग्य वेश-भषा यक्त अन्य महाराजा भी सूर्य-किरणोंके तापका हरण करनेवाले श्वेत-छत्रोंको लगाकर अपने-अपने दाहिने हाथोंमें तलवार १५ लेकर उस त्रिपृष्ठके पीछे-पीछे चले ॥९०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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