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________________ ४. १९.२] हिन्दी अनुवाद गठबन्धन नहीं किया जायेगा बल्कि मेरा अनुज ( त्रिपृष्ठ ) उस दुर्मति तुरयगल ( अश्वग्रीव ) का १० उसी प्रकार वध करेगा, जिस प्रकार कि गन्धहस्ति कलभको मार डालता है । मैं इस ( त्रिपृष्ठ )के पराक्रमको जानता हूँ। संसारमें ऐसा प्रकट पराक्रमवाला अन्य कोई नहीं, जिसकी भुजाओंमें अमानुष-दैव-बल है ( उसे समझकर ) उस विषयमें ( आपका केवल ) मौन ही विभूषण होगा।" इस प्रकार कहकर जब गुणाकर विजय चुप हुआ, तब दूसरा गुणसागर-मन्त्री इस प्रकार बोला घत्ता-"अपनी विजयमें स्पष्ट ही विजयने अपना समस्त कर्तव्य-कार्य कह दिया है । तो भी हे देव, भविष्यको जाननेमें असमर्थ एवं जड़बुद्धि होनेपर भी मैं आपकी कुछ भ्रान्तियोंको दूर करना चाहता हूँ।" ||८७|| १८ गुणसागर नामक मन्त्री द्वारा युद्ध में जानेके पूर्व पूर्ण-विद्या सिद्ध कर लेनेको मन्त्रणा मलया "हे कमलमुख, श्रेष्ठ ज्योतिषीने क्या पहले ही आपको यह सब नहीं कह दिया था ? ( अवश्य कही थी ) तो भी मैं उस अजेय विजेता, एवं अमानुषिक श्रीलक्ष्मीपति (-त्रिपृष्ठ ) की परीक्षा करना चाहता हूँ। क्योंकि विचार कर लेनेके बाद किया हुआ भयंकर कार्य भी परिणाममें दुःखकर नहीं होता। अतः जो विवेकी हैं, वे बिना विचारे ऐसा कोई यद्वातद्वा कार्य न करें कि जिससे युद्ध में वह ( त्रिपृष्ठ ) उस विद्याधर चक्रपति हयग्रीव द्वारा जीत लिया ५ जाये तथा उसके स्फुरायमान चक्रके द्वारा वह मार डाला जाय। जो सात ही दिनोंमें श्रेष्ठ विद्याओंको साध लेगा वह इस पृथिवी-मण्डलपर नारायण समझा जाता है। यह अवश्य ही करणीय है"। इस प्रकार उस गुणसागर नामक मन्त्रीके कथनको सभी सभासदोंने संशयरहित होकर स्वीकार किया। इसी बीचमें विविध विधियाँ सम्पन्न करके प्रभु ज्वलनजटीने हाथपर हाथ धरकर प्रचुर सुख-निधिको उत्पन्न करनेवाले विद्या-समूहके सिद्ध करनेकी उत्तम विधिका ( उस १० त्रिपृष्ठ एवं विजयको ) उपदेश दिया तथा जो विद्या अन्य महापुरुषोंको बारह वर्षों में भी विधिपूर्वक सिद्ध न हो सकी, वह अहित-निरोधिनी रोहिणी नामक विद्या स्वयमेव सहसा ही उसके सम्मुख प्रकट हो गयी। घत्ता-द्युतिमें रविको भी जीत लेनेवाली अन्य समस्त विद्याएँ भी उसके सम्मुख आकर उपस्थित हो गयीं। युद्ध में शत्रुओंका हनन करनेकी इच्छा करनेवाले निरहंकारी महान् पुरुषोंके १५ लिए तत्काल ही क्या-क्या प्राप्त नहीं हो जाता ।।८८॥ १९ त्रिपृष्ठ और विजयके लिए हरिवाहिनी, वेगवती आदि पांच सौ विद्याओंकी मात्र एक ही सप्ताहमें सिद्धि मलया अजेय विजयके लिए भी समस्त सुखोंको प्रदान करनेवाली विजया, प्रभंकरी आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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