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________________ ४. ५.७] हिन्दी अनुवाद ज्वलनजटीकी पुत्री स्वयंप्रभाका त्रिपृष्ठके साथ विवाह मलयविलसिया जन-मनका हरण करनेवाले मन्दिरके ( प्रमुख ) द्वारपर सर्वश्रेष्ठ मणियोंसे निर्मित पूर्ण कलश स्थापित किया गया । (विविध ) मोतियोंकी मालाओंसे चौक पूरे गये। दिशाचक्र जनकोलाहलसे व्याप्त हो गया। द्रव्य-दानसे दरिद्रोंका पोषण किया गया, उपवनके फलोंसे पोषित श्रेष्ठ विद्याधरोंके कारण वह नगर इतना अधिक रमणीक हो गया मानो, लक्ष्मी ही परस्परमें संसारसे ईर्ष्या करने लगी ५ हो। ( अर्थात् सुन्दर नगर एवं विद्याधरोंसे व्याप्त उपवन-ये दोनों ही परस्परकी विभूतिको जीतनेकी इच्छासे एक दूसरेसे अधिक रमणीक बन गये थे )। इसी बीचमें शुभ गुणोंसे समृद्ध उस सम्भिन्न नामक ज्योतिषी द्वारा बताये गये उत्तम दिवसपर भक्तिपूर्वक जिनवरकी पूजा करके तथा पूर्व-पुरुषोंका विधि-पूर्वक स्मरण करके, कमलको छोड़ देनेवाली लक्ष्मीके समान अपनी उस सुपुत्रीको परितोष पूर्वक उस खेचरेश-ज्वलनजटीने १० हरि-त्रिपृष्ठ-नारायणको समर्पित कर दिया । अन्धकारको नष्ट करनेवाले स्फुरायमान आभरणोंसे अन्य नरेन्द्रोंको सम्मानित कर सुन्दर वेशवाला वह खगेश–ज्वलनजटी योग्य कन्यादान कर चिन्तारूपी सागरसे पार उतर गया। विजयके अनुज त्रिपृष्ठको विधिपूर्वक अपनी सुपूत्रीको प्रदान कर वह ( खेचराधिप ) बहुत ही प्रसन्न था। ठीक ही है, गौरवशालियोंके साथ मनचाहे सम्बन्धको प्राप्त कर अपने हृदयमें कौन सन्तुष्ट न होगा? इसी बीच में, विजया पर्वतकी सुखद श्रेणियोंमें श्रेष्ठ उत्तर-श्रेणीमें स्थित अलकापुरीमें विद्याधरोंका श्री-सम्पन्न राजा शिखिगल अपनी प्रियतमा नीलांजनाके साथ निवास करता था। उनके यहां विशाखनन्दीका वह जीव, हयग्रीव नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ, जो चक्रवर्तीके रूपमें विख्यात हुआ। ___ घत्ता-नभचर-पति-ज्वलनजटीकी कमलके समान हाथोंवाली पुत्रीका अपने चरके २० मुखसे श्रीके भाजनस्वरूप पोदनपुरपतिके पुत्र त्रिपृष्ठके लिए, सम्प्रदान ( समर्पणका वृत्तान्त ) सुनकर ॥७४|| हयग्रोवने ज्वलनजटी और त्रिपृष्ठके विरुद्ध युद्ध छेड़नेके लिए अपने योद्धाओंको ललकारा मलयविलसिया समरभूमिमें निर्भीक वह दुष्ट एवं दुर्जन हयग्रीव अपने मनमें रुष्ट हो गया। यमराजके समान विभीषण ( भयानक ) तथा प्रलयकालीन अग्निके समान विनाशकारी गर्जना करता हुआ वह ( हयग्रीव ) चिल्लाया-"अरे विद्याधरो, इस (ज्वलनजटी विद्याधर ) ने ( हमारे समाजके ) विरुद्ध जो कार्य किया है, क्या तुम लोगोंने उसे प्रकट रूपमें नहीं सुना है ? उस अधम विद्याधरने हम सभी विद्याधरोंको तणके समान मानकर हमें तिरस्कृत करके अपना ५ कन्यारत्न एक अनिर्जित तथा दानव स्वरूपवाले भूमिगोचरी ( मनुष्य ) के लिए दे डाला है।" हयग्रीवका कथन सुनकर सभा-भवन ( दरबार ) में स्थित दुर्जेय भयंकर योद्धागण ( इस प्रकार ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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