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________________ ४. ३. १४] हिन्दी अनुवाद संसारमें बल, लक्ष्मी, प्रताप, चतुर-श्रेष्ठ, चन्दनके समान शान्त-शीतल स्वभावी तथा रत्नातिके समान कान्तिमान् होनेपर भी उन विजय एवं त्रिपृष्ठने खेचराधिप ज्वलनजटीके चरणयुगलमें प्रणाम किया। श्रुतार्थका मनन करनेपर तथा उस ( ज्वलनजटी ) से महान् गुणज्ञ होनेपर भी वे दोनों भाई ( उसके प्रति ) अत्यन्त विनम्र थे। उसी अवसरपर रोमांचसे भरकर विजय एवं त्रिपृष्ठने हर्षित होकर अर्ककीर्तिका भी आलिंगन किया तथा स्नेहप्लावित होकर अपने नेत्रोंका ( अर्ककीति दर्शनरूपी ) फल प्राप्त किया। हे भाई, आप ही बतलाइए कि प्रिय बान्धवोंका संसर्ग किसके मनमें तत्क्षण ही हर्ष उत्पन्न नहीं कर देता? इसी बीचमें शत्रुजनोंके लिए भयानक तथा मनुष्यों एवं विद्याधरोंके स्वामीके मनको १० जानकर राजा प्रजापतिका, दूसरोंके मनकी बातें जानने में अत्यन्त चतुर एवं विलक्षण मन्त्री बोला-"चिरकालसे पुरुष-स्नेहरूपी जो वृक्ष छिन्न हो गया था तथा अनेक वर्षों से जो गलगलकर विदीर्ण हो रहा था, उसे आपने अपने दर्शनरूपी अनिवार जल-धारासे सींचकर बढ़ाया है।" . घत्ता-वियुक्त मुनि केवलज्ञान प्राप्त कर जिस प्रकार श्रुतकथित परम-सुख प्राप्त करता १५ है, उसी प्रकार आपके दुख-ध्वंसी दर्शन कर इस राजा प्रजापतिको भी आपके दर्शनोंसे परमसुख प्राप्त हुआ है। ॥७२॥ ज्वलनजटी द्वारा प्रजापतिके प्रति आभार-प्रदर्शन व वैवाहिक तैयारियाँ मलयविलसिया ( राजा प्रजापतिके ) मन्त्रीका कथन सुनकर, अपना सिर धुनकर तथा अधीर होकर वह खेचराधीश-ज्वलनजटी बोला "हे विचार-विचक्षण, हे सुलक्षण, हे मन्त्रीश्रेष्ठ, ऐसे वचन मत बोलो, क्योंकि चिरकालसे आराधित ऋषभदेवके अनुरागसे ही कच्छ-नरेश्वरके सुपुत्र नमिराजा, फणिपति-धरणेन्द्र द्वारा प्रदत्त एवं सभी नरनाथों द्वारा ज्ञात विद्याधर-विभूतिसे सम्मानित हुए थे। मैं भी तो हृदयसे इन्हीं ५ (प्रजापति नरेश ) का आज्ञाकारी राजा हूँ। खलजन तो जो मनमें आता है, सो ही कहा करते हैं। किन्तु सज्जन पुरुष पूर्वपरम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। कार्य आ पड़नेपर उनसे तो उत्तरोत्तर घनिष्ठता ही बढ़ती जाती है।" इस प्रकार कहकर सूर्यको भी तिरस्कृत कर देनेवाली किरणोंसे युक्त मुकुटधारी उस विद्याधर-राजाके दूतने कहा कि "विवाह-विधिकी संरचना कीजिए।" ( तब ) आनन्दित होकर १० देवोंने उस कार्यको प्रारम्भ कर दिया। - अरिजनोंका विदारण करनेवाले वे दोनों ही विशुद्ध ( मनवाले ) विद्याधर राजा, परिजनों , सहित अपने-अपने निलय ( आवास ) में प्रविष्ट हुए। घर-घरमें युवतियाँ मंगलगान करने लगी, दुष्टजनों द्वारा किया गया दंगल शान्त किया जाने लगा। सामूहिक रूपमें हाथोंके कोनों द्वारा पटह (नगाड़े ) एवं मृदंग पीटे जाने लगे। कहीं भी कोई भी कलह-शोरगुल नहीं कर रहा था। १५ पत्ता-चिह्नांकित ध्वजाएँ हवाके कारण फहरा-फहराकर सूर्यको ढंक दे रही थीं। घरोंघरोंमें मुखरूपी कमलकी रजसे मनोहर एवं श्रेष्ठ कुल-वधुएँ नृत्य कर रही थीं ॥७३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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