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________________ ३. ३१. १३] हिन्दी अनुवाद ७७ २० ज्वलनजटोके दूतने राजा प्रजापतिका कुलक्रम बताकर उसे ज्वलनजटीका पारिवारिक परिचय दिया ___ "आपके कुलमें सर्वप्रथम अजेय बाहुबलि देव हुए तथा लोगोंके राजाधिराज अजेय भरत भी हुए। कच्छ देशके राजाके पुत्र तथा अपनी कुलरूपी श्रीके मण्डनस्वरूप, विद्याधरोंके स्वामी नाभि नृप आदिको आपके चिरपुरुषोंका स्नेह प्राप्त था। उसी परम्पराके न्यायवान्, विनयालंकृत, गगनतलगामी, विद्याधरोंके राजा तथा मेरे स्वामी ज्वलनजटीने दूर रहते हुए भी बारम्बार स्नेहसुखपूर्वक आलिंगन कहकर आपकी कुशल-वार्ता पूछी है। उस ज्वलनजटीका पुत्र अर्ककीर्ति तथा ५ प्रचुर कीर्तिवाली पुत्री स्वयंप्रभा है। स्वयंप्रभाके योग्य वर प्राप्त न कर पानेके कारण सन्तप्त उस ज्वलनजटीने निमित्तज्ञानमें दक्ष, हृदयसे स्वच्छ महामति सम्भिन्न ( नामक दैवज्ञ ) में विश्वास कर ( इसका कारण) उससे पूछा। तब उस दैवज्ञने कहा-'बुधजनोंके मनको प्रसन्न करनेवाले मुनिके श्रीमुखसे मैंने जो कुछ सुना है, उसे सुनो-"धन-धान्यसे सम्पन्न इसी भारतवर्षमें, प्रजापति नामका एक नरनाथ है । __ पत्ता-विजय और त्रिपृष्ठ नामके समस्त गुणोंसे समृद्ध तथा उत्कृष्ट दो पुत्र हैं जो बलभद्र एवं वासुदेव पदधारी हैं । वे अर्धचन्द्रके समान भालवाले तथा पुराकृत-पुण्यके फलसे ही उसे प्राप्त हुए हैं।" ॥६९।। ज्वलनजटोके इन्दु नामक दूत द्वारा प्रस्तुत 'स्वयंप्रभाके साथ त्रिपृष्ठका विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकृत कर राजा प्रजापति उसे अपने यहां आनेका निमन्त्रण देता है "विजयके अनुज-त्रिपृष्ठका पूर्वभवका शत्रु वह विशाखनन्दि, जो वन्दीजनों द्वारा स्तुत था, वही इस भवमें नीलमणिके समान देहवाला खेचराधिपति अश्वग्रीव हुआ है। यह त्रिपृष्ठ समरांगणमें इस अश्वग्रीवका भयंकर शिला द्वारा भालतलको भंग करके उसके सिरको तोड़ डालेगा। फिर वह नृप-वरिष्ठ त्रिपृष्ठ अपने हाथमें चक्रसे अलंकृत होकर तीन खण्डोंका स्वामी होगा। अतः निभ्रान्त होकर तुम महान् उत्सवपूर्वक अपना कन्यारूपी रत्न इस (त्रिपृष्ठ) को ५ उसके प्रसादसे तुम भी संसारमें भव्य समस्त उत्तर श्रेणीका राज्य भोगोगे।" सूवर्ण-सूत्र पोषित ( महाग्रन्थोंके अध्येता ) उस सम्भिन्न नामक दैवज्ञका वचन सुनकर तथा उसीके आदेशसे उस विद्याधरनरेश ज्वलनजटीने 'इन्दु' नामसे प्रसिद्ध, मुझे विश्वस्त दूतके रूप में आपकी सेवामें भेजा है। हे देव, मैंने कल्याणकी कामना करके स्थिर चित्त होकर आपके सम्मुख अपना रहस्य प्रकट कर दिया है। उस अवसरपर अत्यन्त हर्षसे रोमांचित होकर राजा प्रजापतिने उत्तम आभूषणोंसे उस दूतको सम्मानित किया तथा दूतके द्वारा ज्वलनजटीके हृदयके भाव जानकर तथा खेचराधिप ज्वलनजटीके ही निमित्त उसके मनको सन्तोष देनेके लिए इस प्रकार एक वाचन सन्देश भी भेजा-"निश्चयपूर्वक कुछ ही दिनोंमें अरिजनोंके लिए दुस्साध्य इस नगरीमें आप आवें।" १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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