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________________ ३. २७. २२] हिन्दी अनुवाद चलते समय ( मार्ग में ) उसने उस मृगेन्द्रको देखा, जिसके द्वारा मारे गये मनुष्योंकी हड्डियोंसे पार्श्वभाग पाण्डुर-वर्णके हो गये थे तथा जहाँ मांस-लोलुपी गृद्ध सुखपूर्वक गिर-पड़ रहे थे। जिस सिंहके नख-रन्ध्रों द्वारा छितराये गये गज-मोतियोंसे नगरके छोर पुरे हुए थे, जिसके द्वारा मगोंके मारे जानेसे ( जहाँ-तहाँ) खून बह रहा था, जिसने अपनी रौद्रतासे यमराजके ५ निवासको भी जीत लिया था तथा जो पर्वतके विवरमें रत्नप्रभा नामक नरक-भूमिकी तरह प्रतिभासित होता था, जिसने अपने नखोंसे वन-गजेन्द्रके मुखको विदीर्ण कर दिया था। त्रिपृष्ठ ( की सेना ) द्वारा किया गया उपद्रव तथा पटु-पटहके पीटे जानेके शब्दोंको सुनकर क्रूरभक्षी तथा महाराक्षसके समान प्रतीत होनेवाला, आलस-भरे नेत्रोंवाला, कराल दाढ़ोंवाला, भीषण भौंहोंवाला, भास्वर केशर-जटाओंवाला, गल-गर्जना करता हुआ अपना बाह्य रूप दर्शाता १० हुआ तथा कूरतासे बढ़ी हुई कषायवाले अन्तरंगको दिखाता हुआ वह पंचानन-सिंह उठा। घत्ता-मनुष्योंको मारनेके स्वभाववाला तथा पीलु-गजोंको विदारनेवाला वह पंचानन, जब अपने मुखसे घुरघुरा रहा था, तभी वह त्रिपृष्ठ तुरन्त ही अकेला धीरे-धीरे उसके आगे खिसककर गया और खड़ा हो गया ॥६५॥ २७ त्रिपृष्ठ द्वारा पंचानन–सिंहका वध तदनन्तर निर्दय उस हरिणाधिप-सिंहके श्वापदोंको मारनेवाले नखोंसे भास्वर तथा अत्यन्त दुर्धर अग्रिम पैरोंको उस हरि-त्रिपृष्ठने अपने हृदयको कड़ा कर स्थिर एक हाथसे तो तत्काल ही खींचकर पकड़ लिया तथा संग्राममें समर्थ अपने दूसरे दृढ़ हाथको कराल-मुखके भीतर डालकर लपलपाती जिह्वावाले सिंहको पछाड़ दिया। रक्तसमान दोनों नेत्रोंसे दावाग्निरूपी अविरल विशाल ज्वालाका वमन करता हुआ क्रोधसे ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह हरित्रिपष्ठका विदारण कर. मारकर ही दम लेगा। इसके बाद उस सिंहके शरीरसे निकले हए रक्तसे ५ उस हरि-त्रिपृष्ठने मेदिनी-पृथिवीपर उत्पन्न सन्तापको शान्त किया। समुद्र के समान गम्भीर विजयके उस अनुज-त्रिपृष्ठने अपने साहससे शत्रुको वशमें कर लिया। मृदु-गुणको धारण करनेवाले महान् पुरुष अपने कार्योंको कहते नहीं फिरते। रणक्षेत्रमें दूसरोंके लिए जो असाध्य एवं अवध्य था उसे भी मारकर दुर्जनोंके लिए दुनिवार तथा बुधजनोंमें वरिष्ठ वह-त्रिपृष्ठ निर्विकार ही रहा। धत्ता-इसी बीच उसी श्रीनाथ-त्रिपृष्ठने देवों द्वारा उच्चरित अत्यन्त भद्र जय-जयकार शब्दों पूर्वक मनोहर-६६।। १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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