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________________ ६१ ३. १५. १३] हिन्दी अनुवाद घत्ता-"आप शुद्ध स्वभाववाले हैं, अतः उपवनके अपहरण-कालमें आप विमुख न हों।" । इस प्रकार विश्वनन्दिने मन्त्रीके वीर रसयुक्त वचन सुनकर उन्हें अपने हृदयमें धारण किया।" १५ ( उसी समय ) वहाँ वनपाल आ पहुँचा ॥५२॥ _ विश्वनन्दिका अपने शत्रु विशाखनन्दिसे युद्ध हेतु प्रयाण "वह दुष्ट आपके उपवनका अपहरण करके युद्ध-भूमिमें आपका वध करना चाहता है। (हमें ) यही आश्चर्य है कि आपको उस ( दुष्ट ) के ऊपर प्राण लेवा क्रोध ( क्यों) नहीं आ रहा है ? इस संसारमें ( यह देखा जाता है कि ) यदि कोई वृक्ष मार्गमें प्रतिकूल पड़ता हो, तो क्या नदी उसका विनाश नहीं कर डालती ? यदि उसकी आपपर बन्धु-बुद्धि होती तो वह दुराशय ( आपके पास अपना ) दूत न भेजता ? ( और यह सन्देश न भेजता कि )-'मैं अपराधसे युक्त ५ हूँ, तथा भयभीत होकर चरणोंमें माथा झुकाकर प्रणाम करता हूँ।' अपने हृदयमें कोई न्यायवान् ( व्यर्थ ही ) क्रोध नहीं करता, क्योंकि वह उसके शोक का कारण बनता है। हाँ, जो शत्रु अनेक अपराध करता हो तथा प्रवर-शक्तिका प्रदर्शन करता है, उसके साथ हृदयमें महान् रोष धारण कर जूझने में कोई दोष नहीं। आप-जैसे ज्ञानीके लिए यह समय पराक्रम दिखलानेका है, अतः मेरे कथनपर विचार करके कर्तव्य-कार्य करें। इस पृथिवीतलपर जब आपके भुजबलके सदृश अन्य १० कोई है ही नहीं, तब फिर इस दुष्टकी तो ( तुम्हारे सम्मुख ) गणना ही क्या ?" घत्ता-उसके वचन सुनकर तथा अपना कर्तव्य-कार्य समझकर वह विश्वनन्दि मन अथवा पवनके समान वेगसे वहाँ पहुंचा, जहाँ स्वर्गके समान भूमिपर निर्मित दुर्गमें वह शत्रु स्थित था ॥५३॥ विशाखनन्दि अपनी पराजय स्वीकारकर विश्वनन्दिकी शरण में आता है रणरंगमें समुद्यत तथा क्रोधमें बँधी हुई अपनी सेनाको दूर ही छोड़कर पुनः स्वयं अपनी भृकुटियोंको चढ़ाये हुए तथा धैर्यहीन कतिपय उद्भट-भटोंके साथ वह युवराजरूपी सिंह आमर्षके वशीभूत होकर दुर्गके अवलोकनके बहाने उसकी ओर चला। जल-परिखासे अलंकृत विशाल कोटको लाँघकर सहसा ही उसने शत्रुके शूरवीरोंका निपात ( हनन ) कर देवोंके मुख-रूपी कमलोंको विकसित किया। तब नभस्तल कल-कल शब्दसे परिपूर्ण हो उठा। शत्रु-सैन्यसे लड़नेके कारण ५ उसकी खडग जब भग्न हो गयी. तब शिलामय स्तम्भको हाथसे उखाडकर कृतान्तके समान विश्वनन्दि रूपी वैरीको आया हआ जानकर मलिन मखवाले महान भयसे यक्त गात्रवाले तथा शारीरिक तेजसे विवर्जित हीन-सत्त्ववाले और लक्ष्मणानामक मातासे उत्पन्न वह विशाखनन्दि अशक्त होकर तथा थककर जब एक दृढ़तर कैथ-वृक्षपर चढ़ गया, तब सभीमें मनोहर उस युवराजने उस महान् गुरुतर कैंथके वृक्षको भी उखाड़ डाला। तब ( विवश होकर ) लक्ष्मणाका पुत्र वह विशाखनन्दि १० काँपते हुए शरीरसे युवराजके चरणोंकी शरणमें आया। घत्ता-उस विशाखनन्दिको भागकर आया हुआ तथा चरणोंमें गिरा हुआ देखकर वह युवराज अपने मनमें बड़ा लज्जित हुआ। (ठीक ही कहा गया है कि ) यदि रिपुवर्ग प्रणत-सिर हो जाये तथा विद्वानोंका सहायक हो जाये, तब ( युवराज-जैसे ) विख्यात शूरवीरोंको स्वयं ही ( अपने प्रति ) लज्जाका अनुभव होने लगता है ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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