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२. २१.१३]
हिन्दी अनुवाद
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माहेन्द्र-स्वर्गमें उस देवको विविध क्रीड़ाएं वहाँ देवोंके मनका हरण करनेवाली सुरनारियोंके दीर्घ नयनों, हँसते हुए वचनों तथा तीक्ष्ण नेत्र-कटाक्षोंसे विनिहत होकर वह माहेन्द्र-देव भ्रमर लगे हुए सुन्दर-सुन्दर कमलोंसे अलंकृत निर्मल शय्याओं पर मदन द्वारा प्रेषित देवियोंके साथ लीलापूर्वक, अन्यत्र रति रहित ( अर्थात् एकाग्र रूपसे वहींपर रति करनेवाला) होकर रत्न-समूहके स्थानस्वरूप उस माहेन्द्र-स्वर्गमें रमता था। जहाँ मनमें रुचता था, वहाँ वह क्षणभरमें पहुँच जाता था। भ्रमरों द्वारा रमित ५ कल्पवृक्षोंके श्रेष्ठ वनमें अत्यन्त रसीले फल, पत्र एवं पुष्पोंको लेकर तथा उन्हें परिषद्में देकर दिखाता था तथा कभी वायुसे प्रसरित चंचल तरंगोंवाले महा-मानस सरोवरमें जाकर खूब जलक्रीड़ाएँ करता था। उसमें वह प्रियतमाओं पर छींटे फेंकता था और ( बदले में ) उनसे अपने शरीरको बचाता था । अत्यन्त उत्कण्ठित होकर वह कभी गिरिपति (पर्वतों) पर बैठता था तो कभी मनोहर गीत गाता था। कभी वह बाजे बजाता था तो कभी भोग भोगकर हँसता था १० तथा सुललित वाणी बोलता था।
घत्ता-उस माहेन्द्र-स्वर्गमें रहते हुए, सुखोंकी इच्छा करते हुए सूर्यके समान दीप्तिमान्, लक्ष्मीका विलास करते हुए तथा मुकुटसे अलंकृत भालवाले उस ( भारद्वाजके जीव माहेन्द्रदेव ) ने सात-सागरका काल व्यतीत कर दिया ।।३७||
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माहेन्द्रदेवका मृत्यु-पूर्वका विलाप कल्पवृक्षोंके विशाल रूपसे काँपनेपर, मन्दार-पुष्पोंकी मालाके म्लान होनेपर, लोचनोंमें भ्रान्ति ( दृष्टिभ्रम ) हो जानेपर, दुख-समूहके संगमके समान स्वर्गसे विनिर्गमकी सूचना हुई। तब वह निर्जर-देव करुणाजनक रुदन करने लगा, छाती पीटने लगा, अपना माथा धुनने लगा, विषाद-युक्त होकर प्रणयिनियोंका मुँह देखता हुआ मूच्छित होने लगा, तथा विह्वल होकर घूमने लगा, क्योंकि उसका पूर्वाजित पुण्य-प्रदीप शान्त हो गया था। चिन्तारूपी अग्निसे उसका हृदय सन्तप्त था। ( वह सोचने लगा कि ) 'मेरा आशाचक्र नष्ट हो गया है, आज मेरा हर्ष नष्ट होकर तिमिरावृत हो गया है, मणिकिरणोंसे नष्ट अन्धकारवाला तथा सुर-सुन्दरियोंसे सुन्दर, मनोरम हाय स्वर्ग, तू निर्धान्त प्राण छोड़ते हुए दुखी मनवाले मुझे बचाकर अब स्थान क्यों नहीं दे रहा है ? कहो, आज मुझे कहाँ शरण है ? मैं कहाँ प्रवेश करूँ ? कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? कहाँ बैह् ? किस उपायसे जीवनको धारण करूँ ? किस उपायसे मृत्युको ठगकर उसका निवारण करूँ ? गुण- १० • समूहके गृह-स्वरूप मेरी इस देहके साथ उत्पन्न यह लावण्य-वर्ण भी नष्ट हो गया है।'
- घत्ता-'अथवा पुण्य-क्षय पाकर विघटित हुआ शरीर अब पुनः नहीं बन सकता । प्रणयपूर्वक आलिंगन कर हे प्रिये, ( मुझमें ) आसक्त होकर अब मेरे जाते हुए इन प्राणोंको बचाओ।' ॥३८॥
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