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________________ हिन्दी अनुवाद १६ नन्दन भी पिता - नन्दिवर्धनके साथ तपस्या हेतु वनमें जाना चाहता है 'इसी कारण हे प्रणयभूत पुत्र, तुझे राज्य समर्पित कर परलोक साधनके लिए तपोवनमें जाते हुए मेरे प्रति तुम प्रतिकूल मत होना।' इस प्रकार राजा ( नन्दिवर्धन ) द्वारा कथित वचन सुनकर क्षणेक विचारकर तथा अपना सिर धुनकर अनतों ( विनय विहीन ) के सिर को विनत कर देनेवाले तथा अरिवर्गको झुका देनेवाले उस पुत्र ( राजा नन्दन ) ने पिता के चरणों में लगकर ( झुककर ) कहा - ' अपने मनमें आपने राज्यलक्ष्मी को सर्पंके समान भयंकर जानकर क्षणभर में उसे छोड़ दिया । हे पिता, जिस विरोधसे आपने उस (राज्यलक्ष्मी) का विस्तार नहीं किया, हे गम्भीर न्यायके ज्ञाता, उसे ही मैं कैसे स्वीकार कर लूँ ? इसके अतिरिक्त क्या आपने यह नहीं सोचा कि आपकी सेवासे विमुक्त होकर मैं एक भी क्षण नहीं रह सकता । अपने जन्मदाता सूर्यके चले जानेपर क्या दिवस एक भी क्षण ठहर सकता है ? पिताके द्वारा पुत्रको इस प्रकारकी शिक्षा दी जानी एक वह दया एवं धर्म-मार्ग में प्रवृत्त हो, किन्तु नरकके अन्धकूपकी ओर ले जानेवाले एवं १० स्वर्ग का हनन करनेवाले मार्ग का उपदेश आपने मुझे कैसे दिया ? हे विमलशील, आप प्रणाम करनेवालों की पीड़ा को दूर करते हैं । हे दानशील, आपको प्रणाम कर मैं आपसे यही आज्ञा हूँ मैं आपके साथ निष्क्रमण करूँ और मौनपूर्वक स्थित होकर तपस्या करूँ, अन्य कार्य नहीं ।' घत्ता - वैराग्ययुक्त होकर राजाने पुत्र नन्दनको विषयोंसे विरत तथा निष्क्रमण में दृढ़- १५ निश्चयी जानकर अहंकारविहीन मधुरवाणीमें कहा – ॥ १६ ॥ १. १७.१४ ] १७ नन्दिवर्धन द्वारा मुनिराज पिहिताश्रव से दीक्षा "तेरे जैसे संरक्षकके बिना कुलक्रमागत तथा राग-भावसे विस्तार किया गया यह राज्य नष्ट हो जायेगा । उत्तम नृप - पुत्रको चाहिए कि वह अपनी कुल सन्ततिकी परम्पराका निश्चयरूप से उद्धार करे । पिताके द्वारा कहे गये वचन चाहे साधु हों चाहे असाधु, पुत्रको उसका पालन अवश्य करना चाहिए । इस नीति मार्गको जानते हुए भी तेरा स्वभाव इस समय अन्यथा क्यों हो गया है ? 'नृपवर नन्दिवर्धन तपोवनमें जाते समय अपने पुत्रको भी ले गया और इस प्रकार उसने अपने कुलक्रमको ही उन्मूलित कर दिया' इस प्रकार कहकर लोग मुझे अपयश देंगे अतः तू कुछ दिनों तक घरमें ही रह । Jain Education International १९ For Private & Personal Use Only ५ इस प्रकार कहकर राजा नन्दिवर्धनने पुत्र नन्दनके माथेपर सुन्दर, तिमिर-भारका अपहरण करनेवाला तथा रत्नोंसे स्फुरायमान राज्यपट्ट स्वयं ही बाँध दिया। वह ऐसा प्रतीत होता था मानो शत्रुजनोंकी बाहुरूपी डाल ही बांध दी हो। इसके बाद भूपालने मन्त्री, एवं १० सामन्तोंके सम्मुख मधुर वाणीमें कहा – हे नृप, इस समय अनेक नतमस्तक राजे-महाराजे एवं सारभूत विशाल लक्ष्मी तुम्हारे अधिकारमें है । सिर झुकाये खड़े हुए प्रियतम, सुमित्र एवं बन्धुजनोंसे पूछकर तथा मनके सभी द्वन्द्वोंको छोड़कर वह घरसे निकल गया और उस उत्तम लक्षणोंवाले राजा नन्दिवर्धनने तत्क्षण ही मुनिवर पिहिताश्रवके पादमूलमें प्रणाम कर तीन प्रदक्षिणाएँ देकर विनयपूर्वक कामदेवपर विजय प्राप्त करनेवाले पाँच सौ नरेशों के साथ दीक्षा ले ली । ५ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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