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________________ १. ५. १२] हिन्दी अनुवाद होकर ही वहाँ (भागकर ) छिप गया हो अथवा सहस्रों किरणोंसे युक्त तथा तेजस्वी रहनेपर भी सूर्य मणि-किरणोंसे दीप्त विशाल एवं उन्नत भवनोंवाली उस नगरीके ऊपर ( गतिरोधके ५ भयसे ) नहीं चढ़ता। जहाँ जल-खातिकाकी तरंग-पंक्तियाँ पवनसे आहत होकर आकाशमें जाती हुई-सी प्रतीत होती हैं। वे तरंगें नव-कमलिनियोंसे उत्पन्न नील-वर्णको प्राप्त थीं, अतः ऐसा प्रतीत होता था, मानो उस ( जल-खातिका) ने जंगम-पर्वतमालाको ही लील लिया हो। जहाँ रत्नमय कपाटोंसे युक्त गगनचुम्बी सुन्दर गोपुरोंको देखकर आकाश-मार्ग में जाते हुए मुकूटधारी सूधाशी ( देव ) वर्ग ( अपने निवासको हीन मानकर ) आकाशमें ही अपना सिर १० धुनते रहते हैं। जहाँ प्रमादरहित, परदार-विरत एवं मायाचारसे रहित, शब्द एवं अर्थ प्रयोगमें विचक्षण, दानशील, जिन-धर्ममें आसक्त एवं विशुद्धशीलवाले वणिक्जन निवास करते हैं। जहाँ मन्दिरोंकी भित्तिपर पड़ती हुई नील-मणिकी लम्बी किरणोंको कृष्णवर्णके लम्बे सर्प समझकर उन्हें खानेकी अभिलाषासे मयूरी बार-बार उन्हें पकड़नेके लिए आती है। जहाँ स्फटिकमणिसे निर्मित महीतल (फर्श ) पर नारीजनोंके मुखोंके प्रतिबिम्बित रहनेसे भ्रमर उन्हें भ्रमसे कमल १५ जानकर उसके रसपानकी लालसासे उनपर वेगपूर्वक आ पड़ता है। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मधुपायियोंके लिए कोई विवेक ही नहीं रहता। जहाँ स्फटिकमणियोंसे निर्मित भित्तियोंमें तथा नयनोंको चकचौंधिया देनेवाले अपने ही सौन्दर्यको देखकर कामिनियाँ सौतोंकी शंकासे रति-क्रियाओंमें समर्थ अपने प्रियतमोंसे भी जूझ जाती हैं। घत्ता-उस सितछत्रा नगरीमें सु-रमण करनेवाली सुन्दर रमणियोंके साथ देवोंके समान सुखों- २० का अनुभव करता हुआ एक नरपति सुरपतिके समान ही निश्चिन्त मनसे राज्य कर रहा था ॥४॥ ___ सितछत्राके राजा नन्दिवर्धन एवं पट्टरानी वोरमतीका वर्णन उस तेजस्वी राजाका नाम नन्दिवर्धन था, जो दुर्नीति रूपी पन्नगों ( सर्पो ) के लिए मानो गरुड ही था। वह अपने मनमें (निरन्तर ही ) अरहन्तदेवका ध्यान किया करता था। सौन्दर्यमें ऐसा प्रतीत होता था, मानो संसारमें वह दूसरा कामदेव ही उत्पन्न हुआ हो। जिसका विवेक पृथिवी-तल पर विख्यात था, जो शत्रुओंके वंशरूपी वेणुवनके लिए अग्निके समान था, जो प्रतापरूपी सूर्यके लिए उदयाचलके समान था, रणक्षेत्रमें कायरोंके लिए जो अभयदान देता था। ५ जो नवीन पुष्पोंके उद्गमके भारसे विनीत द्रुमके समान था, जो रत्नाकरके समान गुण-गम्भीर था, पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान जो समस्त कलाओंसे युक्त था। शत्रुसेनाके मनुष्यरूपी मृगोंके लिए जो सिंहके समान था, जिसने विद्यारूपी मनोज्ञमणि प्राप्त कर विद्वानोंके मनमें आश्चर्य उत्पन्न कर दिया था। ग्रीष्मकालीन दिवसके अस्त हो जाने पर नभांगणमें सुशोभित उज्ज्वल तारेके समान तथा अविकलरूपसे प्रफुल्लित कुन्द जातिके पुष्पोंके समान सरस एवं धवल वर्ण वाले यशसे जो १० सुशोभित था, जिसने रिपु-वधुओंके मुखोंको काला बना दिया था, किन्तु वह देखकर कोई आश्चर्य-चकित नहीं था ( क्योंकि यह तो नन्दिवर्धनके लिए सामान्य बात हो गयी थी )। वह मनमें चिन्तित चिन्तामणि ( रत्न ) के समान तथा दीन-अनाथोंके लिए कल्पवृक्ष और ( अपने जनपदके लोगोंके साथ-साथ ) अन्य जनपदके लोगोंके भी दुःखोंको दूर करनेवाला था। ठीक ही है, हेमन्त ऋतु की जल-वर्षा अनाज-वृद्धि करती ही है, क्या उससे कोई विरसताको भी १५ प्राप्त होता है ? ( उसी प्रकार राजा नन्दिवर्धनके दानरूपी जलसे सिंचित होकर कौन-सा व्यक्ति विरस-दुःखी बच रहा था ? अर्थात् दान देकर उसने सभीको प्रसन्न बना दिया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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