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________________ द्वार १३१ ३८ -गाथार्थउपधि प्रक्षालन काल-वर्षाऋतु आने से पूर्व ही यतनापूर्वक संपूर्ण उपधि का प्रक्षालन कर लेना चाहिये। यदि जल की सुविधा न हो तो पात्रनिर्योग अवश्य धोना चाहिये ।।८६४ ।। आचार्य और ग्लानमुनि के मलिन वस्त्र बारम्बार धोना चाहिये। कारण मलिन वस्त्र से गुरु की निन्दा न हो और ग्लान को अजीर्ण न हो॥८६५ ।। -विवेचनवर्षाकाल से कुछ पहिले उपधि का प्रक्षालन होता है। पानी की कमी हो तो जघन्यत: सात प्रकार का पात्र-निर्योग (पात्र संबंधी वस्त्र) तो अवश्य ही धोना चाहिये। यदि पानी पर्याप्त हो तो सारी उपधि यतनापूर्वक धोनी चाहिये। निस् उपसर्गपूर्वक युजि धातु से निर्योग शब्द बना है उसका अर्थ है उपकार करना । 'पात्रस्य निर्योग:' अर्थात् पात्र के उपकारी उपकरण पात्र-निर्योग कहलाते हैं ॥८६४ ॥ प्रश्न—सभी मुनियों की उपधि वर्षाकाल से पूर्व एकबार ही धोई जाती है या इसमें कुछ विकल्प उत्तर-सूत्रार्थ की व्याख्या करने वाले, सद्धर्म की देशना देने में दक्ष इत्यादि अनेक गुणों से श्रेष्ठ आचार्य, उपाध्याय, गुरु (धर्मोपदेश देने वाले), ग्लान, आदि की उपधि मलिन हो तो अधिक बार भी धोई जा सकती है, क्योंकि आचार्य आदि के मलिन वस्त्र प्रवचन-हीलना व लोकनिन्दा के कारण हैं। लोक घृणा करे, यथा-ये मुनि मलमलिन व दुर्गन्धयुक्त हैं। इनके पास जाने से क्या लाभ है? ग्लान की उपधि यदि न धोई जाये तो मैले वस्त्रों के साथ ठंडी हवा लगने से वस्त्र आर्द्र बनते हैं जिससे जठराग्नि मन्द हो जाती है, पाचन नहीं होता, रोगी अधिक रोगी हो जाता है। इसके सिवाय अन्य मुनियों की उपधि का प्रक्षालन वर्षाकाल से पूर्व एकबार ही होता है। शीतोष्णकाल में अन्य मुनियों को वस्त्र धोना नहीं कल्पता क्योंकि वस्त्र धोने में जीव विराधना, बकुश, कुशीलतादि दोष है। प्रश्न–वर्षाकाल से पूर्व उपधि धोने में भी जीव-विराधना, बकुश-कुशीलतादि दोष तो लगेंगे ही, अत: उस समय भी उपधि क्यों धोई जाये? उत्तर-उस समय उपधि का प्रक्षालन आगम विहित है। इसमें दोष कम और लाभ अधिक है। अन्यथा स्वास्थ्य की हानि होने से संयम पालन अशक्य होगा तथा प्रक्षालन यतनापूर्वक करे तो जीव-विराधना आदि दोषों से भी बचा जा सकता है। सूत्र आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने वाले से कदाचित् हिंसा हो भी जाये तो भी वह पाप का भागी या तीव्र प्रायश्चित्त का भागी नहीं बनता क्योंकि उसकी प्रवृत्ति यतना सहित है ॥८६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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