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________________ द्वार २७३-२७४ ४३८ आहारक शरीर का विरह काल विरह काल संख्या अवगाहना कितनी बार हजार उत्कृष्ट छः | जघन्य एक | उत्कृष्ट ९ जघन्य उत्कृष्ट माह - समय । १-२-३ । एक हाथ आहारक | आहारक शरीरी शरीरी जघन्य देशोन एक हाथ सर्वभव आश्रयी ४ बार पश्चात् मोक्ष एक भव आश्रयी २ बार • जीवसमास में आहारक मिश्र का २ से ९ वर्ष का जो विरह-काल (अन्तर) बताया है, वह मतान्तर समझना। प्रयोजन-परमात्मा के समवसरण की शोभा देखने के लिये, विशिष्ट ज्ञान के लिये अथवा अपने सन्देह का निराकरण करने के लिये समीप में कोई तीर्थंकर न होने से जब आहारक लब्धि-सम्पन्न-आत्मा महाविदेह क्षेत्र में जाना चाहते हैं, तो इस शरीर की रचना करते हैं क्योंकि औदारिक शरीर से वहाँ नहीं जा सकते । जब आहारक लब्धिधारी आत्मा आहारक शरीर बनाते हैं तो अपने मूल औदारिक शरीर में रहे हुए आत्म-प्रदेशों में से कुछ आत्म-प्रदेश उसमें डाल देते हैं। आत्म-प्रदेश की धारा अविच्छिन्न होने से दोनों शरीर के बीच में एक दंडाकार धारा बन जाती है, जो दोनों शरीरों को अदृश्य रूप से जोड़ती है। प्रयोजन पूर्ण होने के बाद लब्धिधारी आत्मा अपने स्थान में आकर आहारक शरीर का विसर्जन कर देते हैं और उसमें रहे हुए आत्म-प्रदेशों को पुन: औदारिक शरीर जो कि धरोहर की तरह सुरक्षित रखा हुआ था तथा आत्म-प्रदेशों के जाल से अवबद्ध था उसमें व्यवस्थित कर देते हैं। इस शरीर की स्थिति अन्तमुहूर्त की होती है ॥१५८०-८२ ॥ __ आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना भी किंचिन्यून एक हाथ से कम नहीं होती। क्योंकि आहारक लब्धिधारक का प्रयत्न ऐसा ही होता है तथा आहारक शरीर के आरंभक पुद्गलों की शक्ति भी विशिष्ट होती है अत: प्रारम्भ में ही इसकी अवगाहना देशोन एक हाथ की हो जाती है। औदारिक आदि शरीर की तरह आहारक शरीर की प्रारंभ काल में अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की नहीं होती ॥१५८०-८२ ।। २७४ द्वार: अनार्यदेश सग जवण सबर बब्बर काय मुरुंडोद्ड गोद्डपक्कणया। अरबाग होण रोमय पारस खस खासिया चेव ॥१५८३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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