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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४३५ ::::: धरती में अवगाढ़ है। काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन नामक एक पल्योपम की स्थिति वाले देवता इनके अधिष्ठाता हैं ॥१५७२-७४ ।। छोटी कोठी के आकार वाले अन्य भी छोटे-छोटे पातालकलशे लवण समुद्र में हैं। वे सभी मिलकर सात हजार आठ सौ चौरासी कलश हैं ।।१५७५ ।।। सभी लघु पातालकलश मूल तथा ऊपर के भाग में एक सौ योजन विस्तृत हैं तथा मध्य भाग में एक हजार योजन विस्तृत हैं। हजार योजन भूमि में अवगाढ़ है तथा इनकी ठीकरी की मोटाई दस योजन की है॥१५७६ ।। सभी पातालकलश तीन भागों में विभक्त हैं। सबसे निम्न भाग में वायु है, मध्य भाग में वायु और जल है तथा ऊपर के भाग में केवल जल है। प्रथम और द्वितीय भाग में स्थित वायु क्षुब्ध होने से ऊपर के भाग का जल बाहर निकलने लगता है और समुद्र क्षुब्ध हो जाता है जिससे समुद्र में जल बढ़ने लगता है। जब वायु स्थिर हो जाता है तो जल भी सन्तुलित हो जाता है। इस प्रकार समुद्र में अनुक्रम से ज्वारभाटा आता है ।।१५७७-७९ ।। -विवेचनजंबूद्वीप के मध्यभाग में स्थित मेरुपर्वत की चारों दिशाओं में ९५००० योजन तक लवणसमुद्र का अवगाहन करने के पश्चात् प्रत्येक दिशा में एक-एक पातालकलश होने से कुल ४ पातालकलश हैं। यहाँ 'पाताल' शब्द पद का एकदेश पद समुदाय का परिचायक होता है इस नियमानुसार 'पातालकलश' .. इतने पूरे पद को सूचित करता है। ये पातालकलश महाकाय घड़े के आकार वाले हैं। नाम दिशा अधिपति वडवामुख केयूप यूप ईश्वर । पूर्व में दक्षिण में पश्चिम में उत्तर में काल महाकाल वेलंब प्रभंजन वडवामुख के स्थान पर कहीं वलयामुख है। केयूप के स्थान पर केयूर व समवायांग टीका में केतुक नाम भी है। पाताल कलशों के अधिपति देवता महर्द्धिक तथा १ पल्योपम की आयु वाले हैं। चारों पातालकलश वज्ररत्नमय हैं। इनकी ठीकरी की मोटाई १,००० योजन परिमाण हैं। इन कलशों का मूल व मुखभाग में विस्तार १०,००० योजन का तथा उदर प्रदेश में विस्तार १ लाख योजन का है। १,००,००० योजन भूमिगत हैं अर्थात् ऊँचे हैं। (भूमिगत होना ही इनकी ऊँचाई है) ये कलश मूल में १०,००० योजन विस्तीर्ण हैं । तत्पश्चात् प्रदेश विस्तार बढ़ते-बढ़ते मध्यभाग में विस्तार १,००,००० योजन प्रमाण हो जाता है। मध्यभाग से ऊपर की ओर पुन:-पुन: एक-एक प्रदेश घटते-घटते मुखभाग में विस्तार १०,००० योजन रह जाता है ॥१५७२-७४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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