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________________ द्वार २६८ ४०० 2015 216100320030530300 • अहोरात्रि शब्द का अर्थ सूर्य व चन्द्र के लिये अलग-अलग समझना। सूर्य के लिये अहोरात्रि का अर्थ है सूर्य ग्रहणमुक्त हुआ वह दिन तथा वही रात्रि अहोरात्रि है। परन्तु चन्द्रग्रहण के सम्बन्ध में अहोरात्रि का अर्थ भिन्न है, जिस रात्रि को चन्द्रमुक्त हुआ वह रात्रि तथा आगामी दिन मिलकर अहोरात्रि कहलाता है। आचरणा दोनों प्रकार के ग्रहण के विषय में अलग है। चन्द्र रात में गृहीत होकर रात में ही मुक्त हो जाता है तो उस रात्रि का शेषकाल ही अस्वाध्याय काल माना जाता है, क्योंकि सूर्योदय होते ही अहोरात्रि पूर्ण हो जाती है। पर गृहीत सूर्य दिन में मुक्त हो जाता है तो शेष दिन व रात पर्यंत अस्वाध्याय रहता है, क्योंकि 'अहोरात्रि' तभी पूर्ण होती है ।।१४५९-६० ॥ ४. व्युद्ग्रह-युद्धादि के कारण होने वाला अस्वाध्याय। दो राजाओं का सेना सहित युद्ध, दो सेनापतियों का यद्ध. प्रसिद्ध स्त्रियों का परस्पर यद्ध, मल्लयद्ध, दो गाँवों के मध्य झगडा होने पर यवकों की परस्पर पत्थरबाजी, बाहुयुद्ध, होली का कलह आदि जब तक शान्त न हो तब तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। ___ दोष-यदि कोई वाणव्यंतर देव कौतुकवश युद्ध देखने आये हुए हों तो स्वाध्याय करते हुए साधु को देखकर छलना करे। लोगों को अप्रीति उत्पन्न हो कि हम तो युद्धादि के कारण भयभीत हैं और ये मुनि लोग प्रसन्नतापूर्वक स्वाध्याय कर रहे हैं। अस्वाध्याय के अन्य कारण१. राजा की मृत्यु हो जाने पर जब तक दूसरा राजा न बने तब तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता, क्योंकि इस स्थिति में प्रजा क्षुब्ध रहती है। म्लेच्छादिजन्य भय की स्थिति में भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। व्युद्ग्रह आदि की स्थिति में जब तक शान्ति, स्वस्थता प्राप्त न हो जाये तब तक अस्वाध्याय/तत्पश्चात् भी एक अहोरात्र पर्यंत स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। वसति से सात घर के बीच यदि ग्रामस्वामी आदि महत्तर पुरुष मर गया हो तो एक अहोरात्रि तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। वसति से सौ हाथ के भीतर यदि कोई अनाथ मर गया हो तो वहाँ स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। यदि साधू के कहने पर शय्यातर या श्रावक कलेवर को वहाँ से हटवा दे तो वहाँ स्वाध्याय किया जा सकता है अन्यथा साध दसरी वसति में चले जाये। यदि योग्य वसति न हो तो सागारिक न देखे इस प्रकार वृषभ-गीतार्थ मुनि रात में 'अनाथमृतक' को अन्यत्र परटें। यदि जानवरों ने शव को क्षत-विक्षत कर दिया हो तो सर्वप्रथम चारों ओर देखकर पुद्गलों को यथाशक्य एकत्रित करके फिर शव को परठे। यदि कुछ पद्गल अनजान में रह भी जाये तो भी वहाँ यतनापूर्वक स्वाध्याय कर सकते हैं। इसमें कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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