SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वार २६३ ३८२ २६३ द्वार: जीव-अजीव का अल्प-बहुत्व नर नेरईया देवा सिद्धा तिरिया कमेण इह हुति। थोव असंख असंखा अणंतगुणिया अनंतगुणा ॥१४३२ ॥ नारी नर नेरइया तिरिच्छि सुर देवि सिद्ध तिरिया य। थोव असंखगुणा चउ संखगुणाऽणंतगुण दोन्नि ॥१४३३ ॥ तस तेउ पुढवि जल वाउकाय अकाय वणस्सइ सकाया। थोव असंखगुणाहिय तिन्नि दोऽणंतगुणअहिया ॥१४३४ ॥ पण चउ ति दु य अणिंदिय एगिदि सइंदिया कमा हुति । थोवा तिन्नि य अहिया दोऽणंतगुणा विसेसहिया ॥१४३५ ॥ जीवा पोग्गल समया दव्व पएसा य पज्जवा चेव। थोवाणंताणंता विसेसअहिआ दुवेऽणंता ॥१४३६ ॥ -गाथार्थजीव-अजीव का अल्पबहुत्त्व-मनुष्य अल्प हैं उनसे नरक के जीव असंख्य गुण हैं। उनसे देव असंख्य गुण हैं। उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं ।।१४३२ ॥ स्त्रियाँ अल्प हैं। उनसे मनुष्य असंख्य गुण हैं। मनुष्यों की अपेक्षा नरक के जीव असंख्यगुणा हैं। उनसे तिर्यंच स्त्रियाँ असंख्य गुण हैं। उनसे देव असंख्यगुण हैं। उनसे देवियाँ असंख्यगुण हैं। उनसे सिद्ध अनंतगुण हैं और सिद्धों से तिर्यंच अनन्तगुण हैं ॥१४३३ ।।। त्रस अल्प हैं, उनसे क्रमश: तेउकाय, पृथ्विकाय, अप्काय, वायुकाय और अकाय असंख्यगुण अधिक हैं। वनस्पतिकाय और सकाय अनन्तगुण अधिक है ।।१४३४ ।। सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा अनीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुण हैं। उनसे सइन्द्रिय जीव विशेषाधिक है॥१४३५ ॥ जीव सबसे अल्प हैं। उनसे पुद्गल अनन्तगुण हैं। उनसे काल अनन्तगुण हैं। समय की अपेक्षा द्रव्य विशेषाधिक है। द्रव्य की अपेक्षा प्रदेश और पर्याय क्रमश: अनन्तगुणा हैं ।।१४३६ ।। -विवेचन सब से अल्प गर्भज मनुष्य हैं, क्योंकि वे संख्याता कोटाकोटी हैं। अर्थात् सात रज्जु लंबी और एक आकाश प्रदेश चौड़ी श्रेणि के अंगुल परिमाण क्षेत्र के प्रदेशों की जो संख्या है उसके प्रथम वर्गमूल का तीसरे वर्गमूल की प्रदेश संख्या से गुणा करने पर जो प्रदेश राशि होती है उसी के समरूप मनुष्यों की संख्या है। माना कि अंगुल परिमाण क्षेत्र में २५६ आकाश प्रदेश हैं। उनका प्रथम वर्गमूल १६, द्वितीय वर्गमूल ४ तथा तृतीय वर्गमूल २ है। प्रथम वर्गमूल १६ को तृतीय वर्गमूल २ से गुणा करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy