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द्वार २६२
३८०
सातवाँ चतुष्क दिशा विस्तार परिधि (i) घनदन्त ईशान-कोण लंबाई-चौड़ाई
२८४५ (ii) लष्ट दन्त अग्नि-कोण
९०० योजन (iii) गूढ़ दन्त नैत्ररत-कोण
जगती से दूरी (iv) शुद्ध दन्त वायु-कोण
९०० योजन ये सभी द्वीप दो कोस ऊँची एवं ५०० योजन चौड़ी पद्मवर वेदिका से परिवृत हैं। वेदिका रमणीय वनों से सुशोभित है।
इसी प्रकार शिखरी पर्वत से निकली हुई शाखाओं पर पूर्वोक्त नाम एवं प्रमाण वाले २८ द्वीप हैं। ये सब मिलकर २८ + २८ = ५६ अन्तरद्वीप होते हैं। अन्तरद्वीप के निवासी मनुष्यों का स्वरूप :
प्रथम संघयण-संस्थान वाले। • देवताओं के तुल्य रूप-लावण्य आकार वाले। • ८०० धनुष देह प्रमाण वाले (स्त्रियों का देह प्रमाण कुछ कम होता है) • पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयुष्य वाले।
रीति-नीति से युगल धर्म वाले। • सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से युक्त।
१० प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा अपनी इच्छा-पूर्ति करने वाले। स्वभावत: मंदकषायी, सन्तोषी, निरुत्सुक, मृदु और सरल स्वभाव वाले।
ममत्व एवं वैर रहित, अहमिन्द्र, हाथी, घोड़े आदि वाहन होने पर भी पैदल चलने वाले। • ज्वर आदि रोग, भूत-पिशाच आदि ग्रहों की पीड़ा से रहित, एकान्तर आहार करने वाले। • शालि आदि धान्य से निष्पन्न भोजन नहीं करने वाले परन्तु मिश्री व चक्रवर्ती के भोजन से
भी अधिक मधुर मिट्टी एवं कल्पवृक्ष के पुष्प, फल का आहार करने वाले। इनके शरीर में ६४ पसलियाँ होती हैं। आयुष्य के छ: महीने शेष रहने पर एक युगल को जन्म देकर ७९ दिन पर्यन्त उनका पालन-पोषण करते हैं। तत्पश्चात् मन्दकषायी होने से मरकर निश्चित रूप से देवलोक में जाते हैं । मृत्यु के समय इन्हें जरा भी शारीरिक वेदना नहीं होती। इन द्वीपों में अनिष्ट-सूचक चन्द्र-सूर्य ग्रहण, प्राकृतिक उपद्रव, खटमल, मक्खी , मच्छर, जूं आदि के उपद्रव नहीं होते। सर्प, सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी क्षेत्र के प्रभाव से हिंसा नहीं करते। वहाँ रहने वाले सभी प्राणी रौद्र-भाव रहित होते हैं। इसी से वहाँ के तिर्यंच भी मरकर देवलोक में ही जाते हैं। वहाँ की पृथ्वी धूल, कंटक आदि से रहित समतल और अति-रमणीय होती है ॥१४२०-३१ ।।
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