________________
३७६
असंख्यातभागवृद्ध का प्रतीक है । पुनः ४ शून्य तथा एक संख्या लिखना । लिखने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि २० बिन्दु और ४ एक की संख्या न हो जाये । तत्पश्चात् २ संख्या लिखना । २ संख्या संख्यातभागवृद्ध की सूचक है । तदनन्तर पूर्ववत् २० शून्य और चार बार १ संख्या लिखना...पुनः दूसरी बार २ की संख्या लिखना... फिर २० बिन्दु और ४ बार एक की संख्या... तीसरी बार २ की संख्या... फिर २० बिन्दु और ४ बार एक की संख्या चौथी बार २ की संख्या तत्पश्चात् २० बिन्दु और ४ एक की संख्या पुनः लिखना । इस प्रकार कुल मिलाकर १०० बिन्दु, २० एक की संख्या व ४ दो की संख्या होती है ।
इसके बाद अन्तिम ४ बिन्दुओं के आगे संख्यातगुणवृद्धि की सूचक ३ की संख्या लिखना । पुनः पूर्ववत् १०० बिन्दु, २० एक और ४ दो क्रमशः लिखना । तत्पश्चात् दूसरी बार ३ की संख्या लिखना । इस प्रकार क्रमश: तीसरी बार और चौथी बार भी ३ की संख्या लिखना । पश्चात् १०० बिन्दु २० एक और ४ दो लिखना । कुल मिलाकर ५०० शून्य १०० एक, २० दो और ४ तीन होते हैं। इसके बाद पुनः पूर्ववत् ५०० शून्य, १०० एक, २० दो और ४ तीन लिखने के पश्चात् तीन के स्थान पर असंख्यातगुणवृद्धि का सूचक ४ का अंक लिखना । फिर पूर्ववत् दूसरी... तीसरी और चौथी बार भी वही लिखना । पाँचवी बार में ४ अंक के स्थान पर अनन्तगुण वृद्धि का सूचक ५ का अंक लिखना । इस प्रकार क्रमश: दूसरी, तीसरी और चौथी बार पाँच का अंक लिखना । तत्पश्चात् पुन: पाँच के अंक के योग्य दलिक की स्थापना करना, किन्तु इसके बाद पुनः पाँच का अंक नहीं लिखा जाता कारण 'षट्स्थानक’ यहीं समाप्त हो जाता है । यदि फिर से 'षट्स्थानक' का प्रारम्भ करना हो तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पुन: इसी क्रम को अपनाना पड़ता है। एक षट्स्थानक में कुल मिलाकर बिन्दुओं एवं अंकों की संख्या निम्नलिखित है ।
द्वार २६०-२६१
एक षटस्थानक में चार ५, बीस ४, सौ ३, पाँच सौ २, पच्चीस सौ १ और १२५०० बिन्दु होते हैं ।। १४१८ ॥
२६१ द्वार :
Jain Education International
समणीमवगयवेयं परिहार - पुलाय-मप्पमत्तं च ।
चउदसपुवि आहारगं च न य कोइ संहरइ ॥१४१९ ॥
-गाथार्थ
जिनका अपहरण नहीं होता - १. साध्वी २. केवलज्ञानी ३. परिहारविशुद्ध संयमी ४. पुलाक लब्धिसंपन्न ५. अप्रमत्तसंयत ६. चौदह पूर्वी ७. आहारक शरीरी - इनका कोई अपहरण नहीं कर
सकता ।। १४१९ ॥
For Private & Personal Use Only
असंहरणीय
www.jainelibrary.org