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________________ प्रवचन - सारोद्धार ३६५ -विवेचन अरुणवर समुद्र में से उछलते हुए तमस्काय का दृश्य जंबूद्वीप से लेकर असंख्य द्वीप - समुद्र का उल्लंघन करने के पश्चात् अरुणवर नामक द्वीप आता है । उसके चारों ओर अरुणवर नामक समुद्र है। अरुणवर द्वीप की जगती से चारों दिशाओं में ४२ हजार योजन दूर समुद्र के मध्य में तमस्काय प्रारम्भ होता है । तमस्काय अर्थात् गहन अन्धकार का समूह जो कि पुगल रूप है । प्रारम्भ में तमस्काय समुद्र की सपाटी पर १ प्रदेश विस्तृत होता है । तत्पश्चात् क्रमशः वलयाकार तिरछा फैलते-फैलते १७२१ योजन तक ऊपर फैलता चला जाता है । यह अप्काय का पिण्ड व गहन अन्धकार रूप है । यह तमस्काय फैलते फैलते सौधर्म - ईशान - सनत्कुमार व महेन्द्र देवलोक को घेरते हुए पाँचवें ब्रह्मलोक के अरिष्ट नामक विमान तक पहुँच कर चारों दिशाओं में मिल जाता है । तब उस तमस्काय का आकार मूल में शराब के बुछा (तल) तथा ऊपर ब्रह्मलोक तक मुर्गे के पिंजरे जैसा है । यह तमस्काय अरुणवर समुद्र के जल का विकार रूप होने से अष्काय स्वरूप है। इसमें बादर वनस्पति, वायुकाय, त्रसकाय आदि जीव भी होते हैं । इसका विस्तार संख्याता योजन का एवं प असंख्याता योजन की है। यह तमस्काय घनघोर अंधकारमय है। इसे देखकर देव भी क्षुब्ध हो जाते हैं । ऐसा अंधकार लोक में अन्यत्र कहीं भी नहीं है । तमस्काय = तमिस्र अंधकार के पुद्गलों का समूह तमस्काय है | १३९८-१४०१ ॥ तमस्काय का विस्तार व परिधि 1 तमस्काय का विस्तार व परिधि दो प्रकार की है। निम्न विस्तार और निम्न परिधि । ऊर्ध्व विस्तार और ऊर्ध्व परिधि । प्रथम विस्तार संख्याता हजार योजन का व परिधि असंख्याता हजार योजन की है। यद्यपि तमस्काय का नीचे विस्तार संख्याता हजार योजन का है तथापि परिधि असंख्याता हजार योजन की ही होगी, कारण तमस्काय असंख्यातवें द्वीप को घेरकर रहा हुआ है अतः परिधि का असंख्यात हजार योजन विस्तृत होना प्रमाण सिद्ध है । ऊर्ध्व विस्तार और ऊर्ध्व परिधि दोनों ही असंख्यात योजन प्रमाण है। जब तमस्काय गोलाई में ऊपर की ओर फैलता है तब उसका विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण होता है। परिधि असंख्यात योजन की है इसमें कोई संदेह ही नहीं रहता । गीतार्थों ने तमस्काय का महत्त्व बताते हुए कहा है कि कोई महान् समृद्धिशाली देव, तीन चुटकी बजाने में जितना समय लगता है उतने समय में जिस गति से जंबूद्वीप की २१ बार प्रदक्षिणा करके आ सकता है, उस गति से चले तो छः माह में तमस्काय के संख्यात योजन विसतार को ही पार कर सकता है, अन्य विस्तार को नहीं । परदेवी में आसक्त, दूसरों के रत्नादि को चुराने वाले देव के लिए छुपने की इससे अच्छी कोई जगह नहीं है। मालिक देव अवधि ज्ञान या विभंगज्ञान का उपयोग उसे खोजने हेतु करे उतने समय में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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