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२५५ द्वार :
जंबूदीवार असंखेज्जइमा अरुणवरसमुद्दाओ । बायालीससहस्से जगईउ जलं विलंघेउ ॥१३९८ ॥ समसेणीए सतरस एक्कवीसाइं जोयणसयाइं । उल्लसिओ तमरूवो वलयागारो अउक्काओ ॥१३९९ ॥ तिरिय पवित्थरमाणो आवरयंतो सुरालयचउक्कं । पंचमकप्पेऽरिट्ठमि पत्थडे चउदिसि मिलिओ ॥ १४०० ॥ ट्ठा मल्लयमूलट्ठिओ उवरि बंभलोयं जा । कुक्कुडपंजरगारसंठिओ सो तमक्काओ | १४०१ ॥ दुविहो से विक्खंभो संखेज्जो अत्थि तह असंखेज्जो । पढमंमिउ विक्खंभो संखेज्जा जोयणसहस्सा ॥ १४०२ ॥ परिही ते असंखा बीए विक्खंभपरिहिजोएहिं । हुति असंखसहस्सा नवरमिमं होइ वित्थारो ॥ १४०३ ॥ -गाथार्थ
द्वार २५५
तमस्काय
तमस्काय का स्वरूप- - जंबूद्वीप से असंख्यातवां अरुणवर समुद्र है। उसकी जगती से बयालीस हजार योजन समुद्र के भीतर जाने पर तमस्काय प्रारंभ होता है । वहाँ समश्रेणि में इक्कीस सौ सत्रह योजन ऊँचा, वलयाकार विस्तृत घोर अन्धकार रूप अप्काय उछलता है । वह तिरछा फैलता - फैलता चार देवलोक को आवृत करता हुआ पाँचवें देवलोक के अरिष्ट नामक प्रतर के पास जाकर चारों दिशाओं में मिल जाता है ।। १३९८- १४०० ।
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तमस्काय का नीचे का आकार शराब के मूल जैसा तथा ऊपर ब्रह्मलोक के पास उसका आकार मुर्गे के पिंजरे जैसा है ।। १४०१ ॥
तमस्काय का विस्तार दो प्रकार का है- संख्याता और असंख्याता । प्रथम विस्तार संख्याता हजार योजन का है। इसमें परिधि का विस्तार मिलाने से प्रथम विस्तार (नीचे से ऊपर का विस्तार) असंख्याता हजार योजन का हो जाता है। द्वितीय विस्तार विष्कंभ और परिधि दोनों की अपेक्षा से असंख्याता हजार योजन का है || १४०३ ॥
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