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प्रवचन-सारोद्धार
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में से 'नित्यत्व' आदि किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का ज्ञान कराने वाला 'नय' है। जो 'नय' वस्तुगत अनन्तधर्मों की अपेक्षा रखते हुए (नयान्तर सापेक्ष) किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का बोध करता है वह वस्तुत: संपूर्ण वस्तु का बोधक होने से प्रमाण में ही अन्तर्भूत हो जाता है। परन्तु जो नय नयान्तर से निरपेक्ष होकर अपने अभिप्रेत धर्म के द्वारा अनवधारणपूर्वक (एवकार रहित) वस्तु का बोध करता है वह वस्तु के एकदेश..एक अंश का ग्राहक होने से 'नय' कहलाता है। ऐसा 'नय' निश्चय से मिथ्यादृष्टि होता है क्योंकि यह यथार्थ वस्तु का बोधक नहीं होता। इसीलिये कहा गया है कि-'सव्वे नया मिच्छावाइणो' सभी नय मिथ्यावादी हैं।
नयान्तर निरपेक्ष नयवाद मिथ्यावाद है, इसीलिये जिनागम के रहस्य के ज्ञाता पुरुषों का कथन स्यात्पूर्वक (कुछ अंशों में ऐसा है) ही होता है क्योंकि स्यात् के प्रयोग के बिना उनका कथन भी मिथ्यावाद हो जायेगा। यद्यपि लोकव्यवहार में सर्वत्र...सर्वदा स्यात्कार का प्रयोग नहीं किया जाता तथापि वहाँ अप्रयुक्त भी “स्यात्" शब्द का परोक्ष प्रयोग अवश्य समझना चाहिये। कहा है
____ “अप्रयुक्त भी स्यात् शब्द यदि प्रयोजक कुशल है तो विधि-निषेध, अनुवाद, अतिदेश आदि वाक्यों में अर्थवशात् स्वत: ज्ञात हो जाता है।"
स्यात् शब्द के प्रयोग से वाक्य में किसी विशेष धर्म का कथन होने पर भी अन्यधर्मों का अपलाप नहीं होता प्रत्युत सभी धर्मों की अपेक्षा रहती है, मात्र कथन 'नय' की अपेक्षा से एक ही धर्म का होता है। जैसे, 'स्यादनित्य: घटः' इस क्थन में और 'अनित्य: घटः' ऐसा कहने में बड़ा अन्तर है। प्रथम वाक्य का अर्थ है 'घट कुछ अंशों में अनित्य है, जबकि दूसरे वाक्य का अर्थ है घट अनित्य ही है। पहिले वाक्य से घट में अनित्यता के साथ अन्यधर्मों की भी अपेक्षा है पर दूसरे वाक्य में ऐसा नहीं है, वहाँ अनित्यता के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों का निषेध है। अत: ‘स्यात्' शब्द सहित ही नयवाक्य सम्यक् कहलाता है।
विस्तार से तो नय अनेक हैं क्योंकि एक वस्तु के विवेचन की जितनी विधियां हो सकती हैं उतने ही नय हो सकते हैं। पर संक्षेपत: नय के दो भेद हैं। (i) द्रव्यार्थिक और (ii) पर्यायार्थिक । द्रव्य अर्थात् सामान्य को विषय करने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और पर्याय अर्थात् विशेष को विषय करने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। इन दोनों के सामान्यतया निम्न भेद हैं। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-संग्रह और व्यवहार । पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं—ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
१. नैगमनय-जिसका कोई एक निश्चित स्वभाव नहीं है वह नैगम नय है। न + एक 'नैक' । यहाँ न, न का नहीं है, 'न' अव्यय ही है। अन्यथा 'अन् स्वरे' से नञ् के 'न' को अन् होकर 'अनेकम्' शब्द बन जाता। 'नैक' अर्थात् प्रभूत.अनेक। महासामान्य, अवान्तरसामान्य व विशेष के ग्राहक अनेक प्रमाणों से वस्तु का बोध कराने वाला नय 'नैगम' है। पृषोदरादि से यहाँ 'क' का 'ग' होकर नैगम बना। वस्तु का निश्चित बोध 'निगम' है। अर्थात् परस्पर भिन्न, सामान्य एवं विशेष से युक्त वस्तु का बोध कराने वाला नय 'निगम' है। 'निगम' शब्द से स्वार्थिक अण् प्रत्यय होकर 'नैगम' बना। अथवा गम = मार्ग, नैक = अनेक अर्थात् जो अनेक रूप से वस्तु का ज्ञान कराता है वह नैगम है। ___ नैगमनय की दृष्टि बड़ी विशाल है। वह सत्तारूप महासामान्य, द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि
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