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द्वार १२३-१२४
इत्थं इम विन्नेयं अइदंपज्जं तु बुद्धिमंतेहिं।
एक्कंपि सुपरिसद्धं शीलंगं सेससब्भावे॥ शीलांग के अधिकार में बुद्धिमान पुरुषों के लिये यह ज्ञातव्य है कि एक शुद्ध शीलांग की सत्ता अन्य शीलांगों के सद्भाव में ही होती है। शीलांगों का ग्रहण तीन करण, तीन योग से समुदित ही होता है, एक-द्वि-त्रि संयोगी आदि विकल्पयुक्त नहीं होता। जैसे तीन करण, तीन योग रूप नवांशता की पूर्ति अंतिम विकल्प के साथ ही होती है वैसे १८००० शीलांगों की समग्रता पूर्ति अन्तिम विकल्प से ही होगी। इसीलिये शीलांग श्रावकों के नहीं होते। श्रावकों के प्रत्याख्यान विकल्पयुक्त होते हैं। हाँ, श्रावक अपने मन की स्थिरता हेतु व साधुजीवन के अनुमोदनार्थ शीलांगों का अभिलाप अवश्य कर सकता है। जैसे
१. क्षमागुणयुक्त मन से आहारसंज्ञा विहीन होकर, श्रोत्रेन्द्रिय के संयम पूर्वक जो पृथ्वीकाय का आरंभ नहीं करते, वे धन्य हैं।
इस प्रकार तीन करण, तीन योग, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रियाँ, पृथ्वी आदि नौ जीव, एक अजीव तथा दशविध यतिधर्म के साथ भी विकल्प रचना करके साधुजीवन की अनुमोदना करते हुए श्रावक बोल सकता है ॥८४३-८४६ ॥
१२४ द्वार :
सप्त नय
नेगम संगह ववहार रिज्जुसुए चेव होइ बोद्धव्वे। सद्दे य समभिरूढे एवंभूए य मूलनया ॥८४७ ॥ एक्केक्को य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । बीओ वि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥८४८ ॥
-गाथार्थसात नय-१. नैगम, २. संग्रह ३. व्यवहार, ४. ऋजुसूत्र, ५. शब्द, ६. समभिरूढ़ और ७. एवंभूत-ये मूल सात नय हैं।८४७ ।।
एक-एक नय के सौ-सौ भेद होने से 'सात नय' के कुल सात सौ भेद हुए। अन्य मतानुसार नय के पाँच सौ भेद हैं ।।८४८ ।।
-विवेचनमूल नय ७ हैं
१. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ४. ऋजूसूत्र, ५. शब्द, ६. समभिरूढ़ और ७. एवंभूत ।
प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। (एक वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है, ह्रस्व भी है, दीर्घ भी है, अस्ति भी है और नास्ति भी है, इस प्रकार अनन्त धर्मयुक्त है।) वस्तु के सभी धर्मों का ज्ञान प्रमाण का विषय है पर नय वस्तु के एक धर्म का ही मुख्यरूप से ज्ञान कराता है। जैसे वस्तु के अनन्तधर्मों
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