SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वार २५४ ३६२ उत्सेधांगुल प्रमाण होने से ७ हाथ में ७ x २४ = १६८ उत्सेधांगुल हुए इसमें ८४ आत्मांगुल का भाग देने पर १६८ ’ ८४ = २ उत्सेधांगुल हुए। इस प्रकार १ आत्मांगुल में २ उत्सेधांगुल हुए। - अनुयोगद्वार-चूर्णि में कहा है कि-मतान्तर से वीर प्रभु की ऊँचाई आत्मांगुल की अपेक्षा ८४ अंगुल है तथा उत्सेधांगुल से १६८ अंगुल की है। अत: २ उत्सेधांगुल = वीर प्रभु का १ आत्मांगुल होता है। अंगुल के ३ प्रकार इस विषय में अनेक मतान्तर है। पर ग्रंथ-विस्तार के भय से यहाँ नहीं बताये। (i) उत्सेधांगुल (ii) आत्मांगुल व (iii) प्रमाणांगुल। ये तीनों ही तीन प्रकार के हैं(i) सूच्यंगुल (ii) प्रतरांगुल व (ii) घनांगुल। (i) सूच्यंगुल-एक अंगुल लंबी एक प्रदेश मोटी आकाश प्रदेश की श्रेणी सूच्यंगुल है। जैसे '०००' । यद्यपि सूची में असंख्य आकाश प्रदेश होते हैं तथापि असत् कल्पना से तीन आकाश प्रदेश की मानी गई है। (ii) प्रतरांगुल-अंगुल परिमाण लंबी, एक आकाश प्रदेश मोटी एक सूची में जितने आकाश प्रदेश हैं उन्हें उतने ही आकाश प्रदेश से गुणा करने पर जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने आकाश प्रदेश का एक प्रतरांगुल होता है। माना कि सूची ३ आकाश प्रदेश की है '०००' इसे ३ से गुणा करने पर ३ x ३ = ९ आकाश प्रदेश प्रमाण प्रतरांगुल होता है। लंबाई-चौड़ाई में समान होते हुए मोटाई जिसकी १ प्रदेश प्रमाण हो वह प्रतरांगुल है। जैसे-० ० ० ००० ० ० ० (iii) घनांगुल-जिसकी लंबाई-चौड़ाई व मोटाई तुल्य हो वह घनांगुल कहलाता है। आगम के अनुसार 'घन' शब्द लंबाई-चौड़ाई व मोटाई की समानता में रूढ़ है। प्रतरांगुल लंबाई-चौड़ाई में समान होता है मोटाई तो उसकी एक प्रदेश की ही होती है। ९ प्रदेशात्मक प्रतर का ३ प्रदेशात्मक सूची से गुणा करने पर २७ प्रदेशात्मक (लंबाई-चौड़ाई-मोटाई में समान) घनांगुल होता है । इसकी स्थापना नव प्रदेशात्मक प्रतर के ऊपर-नीचे ९-९ प्रदेश स्थापित करने से पूर्ण बनती है। • आत्मांगुल से शिल्प सम्बन्धी माप किया जाता है। शिल्प के ३ प्रकार हैं। (i) खात = खोदकर निर्माण करने योग्य, कुंआ, तालाब, भूमिगृह आदि । (ii) उच्छ्रित = ऊँचाई पर निर्माण करने योग्य, महल, मन्दिर, घर आदि । (iii) खातोच्छ्रित = नीचे-ऊपर दोनों प्रकार के निर्माण से युक्त; जैसे, भूमिगृह से युक्त महल आदि । • उत्सेधांगुल से देवादि के शरीर का माप किया जाता है। • मेरु आदि पर्वत, नरक, देव-विमान, समुद्र आदि का माप प्रमाणांगुल से किया जाता है ॥१३८९-९७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy