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________________ ३६० ८ लीख ८ जूं = १ जूं = १ यव का मध्यभाग ८ यवमध्य = १ उत्सेधांगुल | उर्ध्वरेणु - जाली आदि के छिद्रों से आने वाली सूर्य की किरणों में ऊपर-नीचे तैरने वाले रजकण । • त्रसरेणु - वायु से प्रेरित होकर इधर-उधर गति करने वाले रजकण | रथरेणु — घूमते हुए रथ के पहिये से उड़ने वाले रजकण । त्रसरेणु वायु से उड़ता है पर रथरेणु रथ के पहिये से खुदकर ही उड़ता है । अत: इसकी अपेक्षा त्रसरेणु अल्प परिमाणवाला है । अन्यत्र 'परमाणु रहरेणु तसरेणु' ऐसा पाठ है वह असंगत है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रमाण के अनुसार रथरेणु की अपेक्षा त्रसरेणु ८ गुणा अधिक नहीं हो सकता। 'संग्रहणी' में भी ऐसा ही पाठ है वह भी आगमविरोधी होने से विचारणीय है । यद्यपि क्षेत्रभेद से मनुष्यों के वालाग्र भी भिन्न-भिन्न परिमाप के होते हैं तथापि जाति की विवक्षा से 'वालाग्र' शब्द का यहाँ एक बार ही प्रयोग किया गया है। मूल में अनुक्त भी कुछ माप उपयोगी होने से यहाँ बताये जाते हैं । ६ उत्सेधांगुल २ पाँव के मध्यभाग २ बेंत ४ हाथ = Jain Education International = = = द्वार २५४ पाँव का मध्यभाग । १ बेंत । १ हाथ । * १ धनुष । १ कोस । २००० धनुष ४ को स १ योजन वैसे तो १ उत्सेधांगुल में अनन्त परमाणु हैं पर 'परमाणु तसरेणु रहरेणु' आदि के क्रम से मूल गाथा में गृहीत परमाणु की अपेक्षा से गिने जायें तो २०,९७,१५२ परमाणु होते हैं। इसमें उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका व उर्ध्वरेणु के परमाणुओं की गणना सम्मिलित नहीं है । देव- नारक आदि के शरीर की ऊँचाई उत्सेध कहलाती है । उसका निर्णय करने वाला अथवा उत्सेध अर्थात् बढ़ना, जो अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के समूह से निर्मित एक व्यवहार परमाणु त्रसरेणु, रथरेणु इत्यादि क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए माप वाला है वह अंगुल उत्सेधांगुल है । (ii) आत्मांगुल - चक्रवर्ती, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों के शरीर की ऊँचाई अपने अंगुल से १०८ अंगुल प्रमाण होती है। जो पुरुष जिस युग में स्वयं की अंगुली से १०८ अंगुल उंचा होता है उस पुरुष की स्वयं की अंगुली को आत्मांगुल कहते हैं । आत्मगुल का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, क्योंकि कालभेद से तत् तत् कालीन पुरुषों के शरीर का प्रमाण अनिश्चित होता है। जिन पुरुषों की ऊँचाई अपने अंगुल से १०८ अंगुल प्रमाण नहीं होती परन्तु न्यूनाधिक होती है उनका अंगुल आत्मांगुल नहीं कहलाता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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