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द्वार २४८-२४९
२ असृति = १ पसली, २ पसली = १ सेत्तिका, ४ सेत्तिका = १ कुलव, ४ कुलव = १ प्रस्थ, ४ प्रस्थ = १ आढ़क, ४ आढ़क = १ द्रोण होता है।
असृति का अर्थ है धान्य से भरा हुआ उलटा हाथ अर्थात् १ मुट्ठी। कुलव = पाव व प्रस्थ = सेर प्रमाण है। प्रस्थ, आढ़क आदि का प्रमाण बाल, कुमार, तरुण आदि की अपनी २ मुट्ठी, पसली आदि से परिमित समझना ।
उक्त प्रमाण से जिसके शरीर में शुक्र, शोणित आदि हीनाधिक होते हैं, उसका शरीर विकारी समझना। शरीर के द्वार
स्त्री के २ कान + २ नेत्र + २ घ्राण + १ मुँह + २ स्तन + १ पायु (मूत्रस्थल) + १ उपस्थ (मलद्वार) = ११ ।।
पुरुष के २ स्तन रहित पूर्वोक्त = ९
तिर्यंच के द्वार अनियमित होते हैं। २ स्तन वाली बकरी के ११, ४ स्तन वाली गाय, भैंस आदि के १३, आठ स्तन वाली सूकरी आदि के १७ द्वार हैं। यह संख्या सभी द्वार निराबाध हो तब समझना। व्याघात होने पर एक स्तन वाली बकरी के १० द्वार, तीन स्तन वाली गाय के १२ द्वार होते हैं। इस प्रकार हाड़ मांस आदि के समूह रूप इस शरीर में क्या पवित्रता है? इस प्रकार यथायोग्य योजन कर लेना ॥१३६७-८३ ॥
|२४९ द्वार :
सम्यक्त्वादि का अन्तरकाल-.
सम्मत्तंमि य लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सायरसंखंतरा हुंति ॥१३८४ ॥
-गाथार्थसम्यक्त्व आदि की प्राप्ति का अंतर-सम्यक्त्व पाने के समय कर्म की जितनी स्थिति है उसमें से पल्योपम पृथक्त्व परिमाण कर्मस्थिति क्षय होने पर श्रावकपन प्राप्त होता है। तत्पश्चात् क्रमश: संख्याता सागरोपम जितनी कर्मस्थिति क्षय होने पर चारित्र, उपशमश्रेणि एवं क्षपकश्रेणि प्राप्त होती है॥१३८४॥
-विवेचनदेशविरति—सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् २ से ९ पल्योपम की कर्मस्थिति क्षय होने के बाद प्राप्त होती है।
सर्वविरति-देशविरति की प्राप्ति के पश्चात् संख्यात सागरोपम प्रमाण कर्मस्थिति क्षय होने के बाद प्राप्त होती है।
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