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________________ द्वार २३६ ३३८ पूर्वोक्त १२वें व्रत के भंगजाल को व्यवस्थित लिखने पर पूर्ण देवकुलिका का आकार बनता है। यथा गुण्य गुणक गुणाकार कुलभेद ४० ०G W wwmo ७२ २३७६ २१६ ४७५२० १२७६ ६४१५२० ওওওও ६१५८५९२ ४६६५६ ४३११०१४४ १३८४१२८७२०० २७९९३६ ७९२ २२१७०९३१२ १६७९६१६ ४९५ ८३१४०९९२० १००७७९९६ २२० २२१७०९३१२० ६०४६६१७६ ३९९०७६७६१६ ३६२७९७०५६ ४३५३५६४६७२ २१७६७८२३३६ २१७६७८२३३६ इसी अनुसार अन्य १-२१ देवकुलिकायें भी समझ लेना। जैसे षड्भंगी से सम्बन्धित १२ देवकुलिकायें है वैसे ९, २१, ४९ तथा १४७ भांगों की भी देवकुलिकायें समझना। ६, ९, २१, ४९ तथा १४७ मूल भांगों में से प्रत्येक की १२-१२ देवकुलिका होने से कुल १२ x ५ = ६० देवकुलिकायें - होती हैं। सम्पूर्ण देवकुलिकाओं की स्थापना गीतार्थों के द्वारा लिखित पट के अनुसार जानना चाहिये। इनका भावार्थ आगे स्पष्ट करेंगे। १६८०८ प्रकार के श्रावक पूर्वोक्त भेदों के लिए पाँच अणुवत सम्बन्धी देवकुलिका का तथा उसके लिये पाँच अणुव्रतों के सांयोगिक भांगों का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि सांयोगिक भांगों की संख्या ही गुणाकारक राशि है। पाँच अणुव्रत के एक संयोगी, द्विसंयोगी आदि भांगों की संख्या क्रमश: ५, १०, १०, ५ तथा १ है। गुण्यराशि क्रमश: ६, ४६, २१६, १,२९६ व ७,७७६ है। गुणनफल निम्न है २१६ १२९६ ७७७६ गुणक १० १० गुणाकार ३० २,१६० ६४८० ७७७६ अहिंसा सत्य आदि पाँच अणुव्रतों में से कोई आत्मा एक-एक व्रत ले तो इसके ५ भेद होते हैं और वे भी द्विविध-त्रिविध, द्विविध-द्विविध आदि ६ प्रकार से लिये जायें तो एक-एक के ६-६ भेद होने से कुल ६ x ५ = ३० भेद हो जाते हैं। द्विसंयोगी में दो व्रत होते हैं और दोनों ही ६-६ प्रकार से लिये जा सकते हैं अत: द्विसंयोगी के ३६ भेद होते हैं। जैसे किसी ने अहिंसावत द्विविध-त्रिविध ग्रहण किया और उसके साथ सत्यव्रत गुण्य ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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