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प्रवचन-सारोद्धार
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-विवेचनव्रत = नियमविशेष, व्रती = नियमविशेष का पालन करने वाले श्रावक । यहाँ व्रती शब्द का अर्थ देशविरति ही नहीं है, परन्तु नियम विशेष का पालन करने वाला है। अत: अविरत सम्यक् दृष्टि भी व्रती की कोटि में आता है क्योंकि वह भी सम्यक् श्रद्धानरूप नियमसंपन्न है। सामान्यतया श्रावकों का पच्चक्खाण दो करण-तीन योग से होता है परन्तु सभी की शक्ति व परिस्थिति समान नहीं होती। अत: सभी लोग चाहते हुए भी दो करण-तीन योग से पच्चक्खाण नहीं कर सकते। ऐसे आत्मा भी यथाशक्ति श्रावकव्रत स्वीकार कर सकें, इसके लिये व्रतग्रहण के कई भेद बताये हैं। उनकी अपेक्षा से श्रावकों के भी अनेकभेद होते हैं। १. श्रावक के दो भेद
(i) विरतिधारी - देशविरति श्रावक (ii) अविरतिधारी - औपशमिक, क्षायिक आदि सम्यक्त्व संपन्न सत्यकि, श्रेणिक,
कृष्ण आदि। २. श्रावक के आठ भेद
(i) द्विविध-त्रिविध-दो करण और तीन योग से पच्चक्खाण करने वाले श्रावक । जैसे स्थूलहिंसा स्वयं न करना, अन्य से न कराना, मन से वचन से और काया से। इस प्रकार व्रतग्रहण करने वाले श्रावकों का व्रत 'द्विविध त्रिविध' कहलाता है। इसमें व्रती को अनुमति देने की छूट रहती है। श्रावक स्त्री पुत्रादि परिग्रह वाला होने से उनके द्वारा होने वाले हिंसादि पापों में उसकी अनुमति की भी संभावना रहती है। अन्यथा साधु और गृहस्थ में कोई अन्तर नहीं होगा।
'भगवती सूत्र' में श्रावक के लिये जो 'त्रिविध-त्रिविधेन' तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान ग्रहण करने की जो बात कही है वह विशेष-विषयक है-जैसे किसी श्रावक की दीक्षा ग्रहण करने की प्रबल इच्छा है परन्तु पुत्रादि परिवार का पालन करने के लिये गृहस्थ में रहना आवश्यक है। ऐसा श्रावक प्रतिमा ग्रहण करते समय व्रतों का 'त्रिविध-त्रिविधेन' ग्रहण कर सकता है अथवा स्वयंभूरमण समुद्रवर्ती मत्स्यों के मांस, हाथियों के दांत, चीतों की छाल आदि के लिये की जाने वाली हिंसा का अथवा अवस्थाविशेष में स्थूलहिंसा का प्रत्याख्यान करने वाला श्रावक 'त्रिविध-त्रिविधेन' व्रतग्रहण कर सकता है। पर श्रावक का
यह व्रत अत्यंत अल्पविषयक होने से गणना में नहीं आता।
(ii) द्विविध-द्विविध-दो करण दो योग से पच्चक्खाण करने वाले श्रावक। यह पच्चक्खाण तीन प्रकार का है
(अ) स्थलहिंसा आदि स्वयं न करना. न कराना मन से. वचन से। इस प्रकार व्रत ग्रहण करने वाला आत्मा मात्र काया से असंज्ञी की तरह हिंसादि पापों को करता है।
(ब) स्थूलहिंसा आदि स्वयं न करना, न कराना, मन से व काया से। इस प्रकार व्रत ग्रहण करने वाला आत्मा अज्ञानवश मात्र वचन से ही मारता हूँ, वध करता हूँ ऐसा बोलता है। पर मानसिक उपयोग एवं कायिक दुष्प्रवृत्ति से रहित होता है।
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