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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३१७ है कि उत्पत्ति स्थान में आने के बाद जीव द्वारा प्रथम समय में गृहीत पुद्गलों के साथ प्रतिसमय गृह्यमाण पुद्गलों का संपर्क होता है। संपर्क होने से ये पुद्गल तद्रूप बनते हैं। इससे आहारादि के पुद्गलों को खल, रस आदि के रूप में परिणत करने की जो शक्ति प्राप्त होती है वह पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्ति के छ: भेद हैं१. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. भाषा पर्याप्ति ५. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ६. मन पर्याप्ति १. आहार पर्याप्ति-आहार के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें खल, रस रूप में परिणत करने की जीव की शक्ति विशेष। २. शरीर पर्याप्ति-रस रूप में परिणत आहार के पुद्गलों को रस, रक्त, माँस, मेद, हड्डी, मज्जा और वीर्य इन सात धातुओं के रूप में परिणमन करने की जीव की शक्ति विशेष । ३. इन्द्रिय पर्याप्ति-सात धातु के रूप में परिणत हुए आहार से इन्द्रियों की रचना के योग्य द्रव्य को ग्रहण कर उसे इन्द्रियों के रूप में परिणत करने वाली जीव की शक्ति विशेष । ४. भाषा पर्याप्ति-भाषावर्गणा के दलिकों को ग्रहण करके उन्हें भाषा के रूप में बदलकर भाषा के आलम्बन द्वारा अर्थात् वचनरूप में उनका प्रयोग करके उन दलिकों का पुन: विसर्जन करने वाली जीव की शक्ति विशेष। ५. श्वासोच्छ्वास-श्वास योग्य वर्गणा के दलिकों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास रूप में बदलने वाली तथा उन्हीं पुद्गलों का आलंबन कर उन्हें छोड़ने वाली शक्ति विशेष । ६. मन: पर्याप्ति- मनोवर्गणा के दलिकों को ग्रहण करके उन्हें मन रूप में परिणत कर उन का आलम्बन लेकर पुन: उन्हें विसर्जन करनेवाली जीव की शक्ति विशेष । किसके कितनी पर्याप्ति? (i) एकेन्द्रिय = चार पर्याप्ति (आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति) (ii) (iii) विकलेन्द्रिय, असंज्ञी = पांच पर्याप्ति (भाषा पर्याप्ति सहित पूर्वोक्त चार = पांच) (iv) संज्ञी-पंचेन्द्रिय = छ: पर्याप्ति (मन पर्याप्ति सहित पूर्वोक्त पांच = छ:) जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मरते हैं, वे भी आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों को तो पूरा करके ही मरते हैं। ऐसे जीव मरने से पूर्व अन्तर्मुहूर्त में परभव का आयु बाँधते हैं। अन्तर्मुहूर्त का अबाधाकाल भोगते हैं पश्चात् ही मरते हैं । अन्तर्मुहूर्त के अनेक भेद होने से पूर्वोक्त बात संगत है। निष्पत्ति काल-जीव अपने योग्य पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो उत्पत्ति के समय ही कर देता है, किन्तु उनकी समाप्ति अनुक्रम से होती है१. आहार पर्याप्ति = एक समय में । २. शरीर पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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