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द्वार १२१-१२२
क्षीणमोही व सयोगी आत्मा का योग प्रत्ययिक सातावेदनीय कर्म का बंध ऐपिथिकी का प्रवृत्तिनिमित्त जन्य अर्थ है।
अप्रमत्त शब्द से यहाँ पाँच समिति व तीन गुप्ति से युक्त, उपशान्त मोह, क्षीणमोह व सयोगी गुणस्थानवी आत्मा ही गृहीत है, क्योंकि योग प्रत्ययबंध इन्हीं आत्माओं के होता है, शेष अप्रमत्तों के तो कषाय प्रत्यय-बंध होता है। जब तक पलकें झपकने की क्रिया होती है तब तक सातावेदनीय का योग प्रत्ययिक समय प्रमाण स्थिति वाला बंध होता है। यह “ईर्यापथिकी” क्रिया है ॥८३४-८३५ ।।
१२२ द्वार:
आकर्ष
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सामाइयं चउद्धा सुय दंसण देस सव्व भेएहिं । ताण इमे आगरिसा एगभवं पप्प भणियव्वा ॥८३६ ॥ तिण्ह सहस्सपुहुत्तं च सयपुहत्तं होइ विरईए। एगभवे आगरिसा एवइया हुंति नायव्वा ॥८३७ ॥ तिण्ह असंखसहस्सा सहसपुहुत्तं च होई विरईए। नाणभवे आगरिसा एवइया हुंति नायव्वा ॥८३८ ॥
-गाथार्थसामायिक के चार आकर्ष–सामायिक के चार प्रकार हैं-१. श्रुतसामायिक, २. दर्शनसामायिक, ३. देशविरति सामायिक और ४. सर्वविरति सामायिक। प्रथम तीन सामायिक के एक भवाश्रयी सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं और सर्वविरति के शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं ।।।८३६-८३७ ।।
प्रथम तीन सामायिक के अनेक भवाश्रयी असंख्य हजार पृथक्त्व आकर्ष होते हैं और सर्वविरति के सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं ।।८३८॥
-विवेचनआकर्ष = खींचना अर्थात् सम्यक्त्व आदि चारों सामायिकों को प्रथमबार ग्रहण करना अथवा ग्रहण की हुई को छोड़कर पुन: ग्रहण करना।
सम = राग-द्वेष की स्थिति में मध्यस्थ बने रहना।
अय = गमन.प्रवृत्ति अर्थात् मध्यस्थ आत्मा का मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्ति “समाय" है । समाय ही सामायिक है।
उपशान्त होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होना “सामायिक” है। सामायिक के चार भेद हैं१. श्रुतसामायिक
३. देशविरति सामायिक २. सम्यक्त्व सामायिक
४. सर्वविरति सामायिक
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