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________________ १४ द्वार १२१-१२२ क्षीणमोही व सयोगी आत्मा का योग प्रत्ययिक सातावेदनीय कर्म का बंध ऐपिथिकी का प्रवृत्तिनिमित्त जन्य अर्थ है। अप्रमत्त शब्द से यहाँ पाँच समिति व तीन गुप्ति से युक्त, उपशान्त मोह, क्षीणमोह व सयोगी गुणस्थानवी आत्मा ही गृहीत है, क्योंकि योग प्रत्ययबंध इन्हीं आत्माओं के होता है, शेष अप्रमत्तों के तो कषाय प्रत्यय-बंध होता है। जब तक पलकें झपकने की क्रिया होती है तब तक सातावेदनीय का योग प्रत्ययिक समय प्रमाण स्थिति वाला बंध होता है। यह “ईर्यापथिकी” क्रिया है ॥८३४-८३५ ।। १२२ द्वार: आकर्ष 3060206580000005886282886056566835268666660 सामाइयं चउद्धा सुय दंसण देस सव्व भेएहिं । ताण इमे आगरिसा एगभवं पप्प भणियव्वा ॥८३६ ॥ तिण्ह सहस्सपुहुत्तं च सयपुहत्तं होइ विरईए। एगभवे आगरिसा एवइया हुंति नायव्वा ॥८३७ ॥ तिण्ह असंखसहस्सा सहसपुहुत्तं च होई विरईए। नाणभवे आगरिसा एवइया हुंति नायव्वा ॥८३८ ॥ -गाथार्थसामायिक के चार आकर्ष–सामायिक के चार प्रकार हैं-१. श्रुतसामायिक, २. दर्शनसामायिक, ३. देशविरति सामायिक और ४. सर्वविरति सामायिक। प्रथम तीन सामायिक के एक भवाश्रयी सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं और सर्वविरति के शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं ।।।८३६-८३७ ।। प्रथम तीन सामायिक के अनेक भवाश्रयी असंख्य हजार पृथक्त्व आकर्ष होते हैं और सर्वविरति के सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं ।।८३८॥ -विवेचनआकर्ष = खींचना अर्थात् सम्यक्त्व आदि चारों सामायिकों को प्रथमबार ग्रहण करना अथवा ग्रहण की हुई को छोड़कर पुन: ग्रहण करना। सम = राग-द्वेष की स्थिति में मध्यस्थ बने रहना। अय = गमन.प्रवृत्ति अर्थात् मध्यस्थ आत्मा का मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्ति “समाय" है । समाय ही सामायिक है। उपशान्त होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होना “सामायिक” है। सामायिक के चार भेद हैं१. श्रुतसामायिक ३. देशविरति सामायिक २. सम्यक्त्व सामायिक ४. सर्वविरति सामायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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