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________________ प्रवचन-सारोद्धार १३ २. अनर्थक्रिया निष्प्रयोजन त्रस जीवों की हिंसा करना, स्थावर जीवों का छेदन-भेदन करना, जैसे-गिरगिट, चूहा आदि त्रसकाय व वनलता आदि स्थावरकाय को बिना किसी प्रयोजन के मारना, काटना आदि ।।८२० ॥ ३. हिंसाक्रिया-सर्प, शत्रु आदि को अपना अनिष्टकारक मानकर उनकी हिंसा करना ॥८२१ ।। ४. अकस्माक्रिया-हिरण, पक्षी, सर्प आदि को मारने के लिये फेंके गये तीर, पत्थर आदि के द्वारा अकस्मात् किसी अन्य का विनाश हो जाना अकस्मात् हिंसा है अथवा अनुपयोगी तृण आदि के काटने के प्रयास में धान आदि की बाली का कट जाना अकस्मात् दण्ड है ।।८२२ ॥ ५. दृष्टिविपर्यासक्रिया अर्थात् “मतिविभ्रम” होना। जैसे, मित्र को शत्रु समझकर मारना, किसी एक व्यक्ति के अपराध करने पर सम्पूर्ण गाँव को मार देना, साहूकार को चोर समझकर मारना ॥८२३-८२४ ।। ६. मृषाक्रिया-अपने लिये या मालिक के लिये असत्य बोलना “मृषाक्रिया" है ।।८२५ ।। . ७. अदत्तादानक्रिया-अपने व दूसरे जैसे, मालिक, स्वजन, परिजन आदि के लिये मालिक की आज्ञा के बिना वस्त ग्रहण करना “अदत्तादान" क्रिया है।॥८२६ । ८. अध्यात्मक्रिया-बिना किसी बाह्यनिमित्त के क्रोध, मान, माया, लोभादि के कारण होने वाला मानसिक शोक, सन्ताप व दुर्भाव “अध्यात्मक्रिया" है । ९. मानक्रिया--जाति, कल, रूप, लाभ, बल, तप, श्रत व ऐश्वर्य---इन आठ मदों से मत्त बनकर दूसरों की हीलना करना, दूसरों को तिरस्कृत करना, जैसे यह नीच है इत्यादि कहना “मानक्रिया" है ॥८२७-८२९ ॥ १०. अमित्रक्रिया माता-पिता, स्वजनादि के अल्प अपराध में तीव्र दण्ड देना । जैसे, जलाना, गोदना, बाँधना, मारना आदि “अमित्रक्रिया" है । दहन = अंगारे आदि से डाम देना, अंकन = ललाट आदि पर चिह्न बनाना । बन्धन = रस्सी आदि से बाँधना, ताड़न = चाबुक आदि से आघात करना। आदि शब्द से आहार-पानी का निषेध करना, यह भी “अमित्रक्रिया” है ॥८३० ॥ ११. मायाक्रिया–माया = कपट, कपटपूर्वक क्रिया करना। मन में कुछ सोचना, वचन से कुछ बोलना व क्रिया अलग ही करना। अपने आकार, इंगित आदि के द्वारा बात को छुपाने में समर्थ व्यक्ति की क्रिया “माया-क्रिया" है ।।८३१ ॥ १२. लोभक्रिया-हिंसामूलक होने से पापरूप धन-धान्यादि, स्त्री, मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध व स्पर्श में अत्यन्त आसक्त व्यक्ति द्वारा स्वयं की रक्षा करते हुए, अन्य जीवों का वध, बंधन आदि करना "लोभक्रिया” है। वध = लकड़ी आदि से मारना, बंधन = रस्सी आदि से बाँधना, मारण = प्राण लेना ।।८३२-८३३॥ १३. ईर्यापथक्रिया-गमन योग्य मार्ग “ईर्यापथ" है । ईर्यापथ सम्बन्धी क्रिया “ऐर्यापथिकी” क्रिया है। यह ऐर्यापथिकी का व्युत्पत्ति-निष्पन्न अर्थ है, पर इसका प्रयोग अन्य अर्थ में होता है। उपशान्तमोही, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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