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________________ द्वार २१७-२१८ २७८ • सत्ता में सभी प्रकृतियाँ रहने से सत्ता एक सौ अड़तालीस की है। • गर्गर्षि व शिवर्षि के मतानुसार जो एक सौ अट्ठावन की सत्ता बताई गई है उसका कारण पांच बंधन के स्थान पर पन्द्रह बंधन मानना है। इस प्रकार एक सौ अड़तालीस में दश प्रकृति मिलाने से एक सौ अड़तालीस + दस = एक सौ अट्ठावन की सत्ता होती है ॥१२७६-७९ ॥ २१८ द्वार: कर्मस्थिति मोहे कोडाकोडीउ सत्तरी वीस नामगोयाणं । तीसियराण चउण्हं तेत्तीसऽयराइं आउस्स ॥१२८० ॥ एसा उक्कोसठिई इयरा वेयणिय बारस मुहुत्ता। अट्ठट्ठ नामगोत्तेसु सेसएसु मुहुत्तंतो ॥१२८१ ॥ जस्स जई कोडिकोडीउ तस्स तेत्तिससयाई वरिसाणं । होइ अबाहाकालो आउम्मि पुणो भवतिभागो ॥१२८२ ॥ -गाथार्थअबाधासहित कर्मस्थिति–मोहनीय कर्म की सित्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नाम-गोत्र की बीस कोडाकोड़ी सागरोपम, आयु को छोड़कर शेष चार की तीस कोडाकोड़ी सागरोपम तथा आयु की तेतीस सागरोपम की स्थिति है ॥१२८० ॥ पूर्वोक्त स्थिति उत्कृष्ट स्थिति है। जघन्य स्थिति इस प्रकार है। वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम-गोत्र की आठ-आठ मुहूर्त तथा शेष कर्मों की अन्तर्मुहूर्त की स्थिति है ॥१२८१ ।। जिस कर्म की जितने कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति है, उस कर्म का अबाधाकाल उतने सौ वर्ष का होता है, पर आयु कर्म का अबाधाकाल उसकी स्थिति का तीसरा भाग है ।।१२८२ ।। -विवेचन कर्म की स्थिति दो प्रकार की होती है-(i) कर्म रूप अवस्थान और (ii) अनुभव योग्य स्थिति। (i) कर्मरूप अवस्थान – बंधे हुए कर्म जितने समय तक कर्म रूप में रहते हैं, पर फल वह स्थिति। (ii) अनुभव योग्य - बंधे हुए कर्म जितने समय तक फल देते हैं, वह स्थिति (अबाधाकाल-हीन कर्म की स्थिति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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