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________________ द्वार २१६ २६६ (i) वज्रऋषभनाराच-वज्र = कील, ऋषभ = वेष्टनपट्ट, नाराच = जिस प्रकार बन्दरी का बच्चा अपनी माँ को दोनों तरफ से पकड़ कर रखता है, उस प्रकार दोनों तरफ से परस्पर पकड़ी हुई हड्डियाँ, इसे मर्कटबंध भी कहते हैं अर्थात् वज्रऋषभनाराच संघयण उसे कहते हैं, जिसमें मरकट से बँधी हुई हड्डियों के ऊपर दूसरी एक हड्डी का वेष्टन और उन तीनों को भेदने वाली हड्डी की एक कील लगी हुई हो। (ii) ऋषभनाराच—जिस संघयण में हड्डियों को भेदने वाला कीला न हो, शेष रचना पूर्ववत् । अन्यमतानुसार दूसरा संघयण वज्रनाराच है, जिस संघयण में मर्कट बंध हो, कीला लगा हुआ हो, किन्तु वेष्टनपट्ट न हो, वह वज्रनाराच संघयण है । (iii) नाराच—जिस संघयण में हड्डियाँ मात्र एक ओर से मर्कट बंध से बँधी हुई हों। (iv) अर्धनाराच—जिस संघयण में एक तरफ मर्कट बंध हो और दूसरी तरफ कीला लगा हुआ हो। (v) कीलिका—जिस संघयण में मर्कट बंध और वेष्टन न हो, किन्तु कील से हड्डियाँ जुड़ी हों। (vi) सेवार्त—जिस संघयण में मर्कट बंध, वेष्टन और कील कुछ भी न हो, यूं ही हड्डियाँ परस्पर जुड़ी हों। जिस संघयण में शरीर हमेशा सेवा की अपेक्षा रखता हो । (८.) संस्थान नामकर्म–शरीर के बाह्य आकार प्रकार को संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से संस्थान की प्राप्ति होती है, वह संस्थान नामकर्म कहलाता है, इसके छ: भेद हैं (i) समचतुरस्त्र संस्थान–पालथी लगाकर बैठने से जिस शरीर के चारों कोनों का अन्तर समान रहता हो अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों जानुओं का अन्तर, दायें कन्धे और वाम जानु का अन्तर बायें कन्धे और दाहिनी जानु का अन्तर समान हो, अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत हों, उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। (ii) न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान-न्यग्रोध का अर्थ है वटवृक्ष । परिमण्डल अर्थात् ऊपर का आकार । जिस शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण-प्रमाणोपेत हों, किन्तु नाभि से नीचे के अवयव अपेक्षाकृत हीन हों, वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान है। (iii) सादि संस्थान—जिस शरीर में नाभि के नीचे के अवयव पूर्ण हो, और नाभि से ऊपर के अवयव हीन हों, वह सादि संस्थान है। स + आदि = सादि, यहाँ आदि का अर्थ है नाभि के नीचे का देहभाग, सादि अर्थात् लक्षण-प्रमाण युक्त निम्न देह भाग वाला शरीराकार । यद्यपि सभी प्रकार के शरीर निम्न देह भाग वाले होते हैं तथापि इसे सादि कहा इससे सिद्ध होता है कि इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन है। वह यह है कि यद्यपि सभी शरीर निम्न देह भाग युक्त होने से सादि, कहला सकते हैं तथापि यहाँ ग्रन्थकार को 'आदि' शब्द से विशिष्ट अर्थ अभीष्ट है। जैसे जिस शरीराकार (संस्थान) में शरीर का नाभि से नीचे का भाग लक्षण प्रमाण युक्त हो और ऊपरवर्ती भाग लक्षणहीन हो वह सादि संस्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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