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प्रवचन-सारोद्धार
माइपिइनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥८२९ ॥ तिव्वं दंडं कुणई दहणंकणबंधताडणाईयं । तम्मित्तदोसवित्ती किरियाठाणं भवे दसमं ॥८३० ॥ एगारसमं माया अन्नं हिययंमि अन्न वायाए। अन्नं आयरई वा सकम्मणा गूढसामत्थो ॥८३१ ॥ मायावत्ती एसा पत्तो पुण लोहवत्तिया इणमो। सावज्जारंभपरिग्गहेसुं सत्तो महंतेसु ॥८३२ ॥ तह इत्थीकामेसु गिद्धो अप्पाणयं च रक्खंतो। अन्नेसिं सत्ताणं वहबंधणमारणे कुणइ ॥८३३ ॥ एसेह लोहवत्ती इरियावहिअं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स ॥८३४ ॥ सययं तु अप्पमत्तस्स भगवओ जाव चक्खुपम्हंपि। निवयइ ता सुहमा हू इरियावहिया किरिय एसा ॥८३५ ॥
-गाथार्थक्रियास्थान तेरह-१. अर्थ, २. अनर्थ, ३. हिंसा, ४. अकस्मात्, ५. दृष्टिविपर्यास, ६. मृषा, ७. अदत्तादान, ८. अध्यात्म, ९. मानक्रिया, १०. अमित्रक्रिया, ११. मायाक्रिया, १२. लोभक्रिया एवं ईर्यापथिकी क्रिया ।।८१८ ॥
१. अर्थक्रिया—स्व और पर के निमित्त त्रस अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करना वह अर्थक्रिया है ।।८१९ ॥
२. अनर्थक्रिया-बिना किसी प्रयोजन के सरट आदि त्रस जीवों को तथा लता आदि स्थावर जीवों को मारकर, छेदकर फेंक देना अनर्थक्रिया है ॥८२० ॥
३. हिंसाक्रिया-सर्प आदि शत्रु हमारी हिंसा करते हैं, हिंसा करेंगे अथवा अतीत में हिंसा की थी, इस प्रकार का चिन्तन करते हुए उनका वध करना हिंसाक्रिया है ।।८२१ । ।
४. अकस्मात् क्रिया-अन्य जीव को मारने हेतु फेंके गये बाण आदि के द्वारा अन्य जीव का वध होना, जैसे घास काटने की इच्छा होते हुए भी अनाभोग से शाली आदि धान्य काट देना ।।८२२ ।।
५. दृष्टिविपर्यास क्रिया-पूर्वोक्त अकस्मात् क्रिया है। दृष्टिविपर्यास क्रिया इस प्रकार होती है। मित्र के मतिविभ्रमवश शत्रु मानकर हिंसा करना अथवा किसी एक के अपराध में समूचे गाँव की हत्या करना अथवा साहूकार को चोर मानकर वध करना-यह दृष्टिविपर्यास नामक पाँचवा क्रियास्थान है ।।८२३-८२४ ।।
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