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________________ प्रवचन-सारोद्धार २५१ प्रमाद के वश कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर कर्म रूप में परिणत करता है। इसमें से जो कर्म आत्मा के मति आदि ज्ञान को आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय-कर्म कहलाता है। (ii) दर्शनावरणीय-वस्तुगत सामान्य धर्म को जानने वाला आत्मा का विशिष्ट गुण दर्शन है। उस दर्शन गण को आवृत्त करने वाला कर्म-पद्रल दर्शनावरणीय कहलाता है। (iii) वेदनीय—जिसके फलस्वरूप जीव सुख या दुःख का भोग करता है, वह कर्म वेदनीय कहलाता है। यद्यपि सभी कर्मों का अंतिम भोग सुख-दुःख रूप होता है तथापि रूढ़िवश वेदनीय शब्द साता, असाता रूप कर्म का ही बोधक है। जैसे कमल और शैवाल दोनों कीचड़ में से पैदा होने पर भी पंकज शब्द रूढ़िवश केवल कमल का ही बोधक होता है, शैवाल का नहीं होता, वैसे वेदनीय कर्म के विषय में भी समझना चाहिये। (iv) मोहनीय-आत्मा को विवेक-विकल बनाने वाला कर्म। (v) आयु–जो कर्म जीव को निश्चित काल तक विभिन्न गतियों में रोककर रखता है अथवा जो कर्म एक भव से दूसरे भव में जाते समय उदय आता है। (vi) गोत्र—जिस कर्म के उदय से जीव कुलीन या अकुलीन, ऊँच या नीच कहलाता है। (vii) अन्तराय—जिस कर्म के उदय से जीव, दानादि देने की इच्छा होते हुए भी नहीं दे सकता अथवा जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है। (viii) नाम—जिस कर्म के उदय से जीव विविध भावों (पर्यायों) का अनुभव करता है। प्रश्न-सर्वत्र आयु के पश्चात् नामकर्म आता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इसे सब से अन्त में क्यों रखा? उत्तरअन्य कर्मों की उत्तरप्रकृत्तियाँ अल्प हैं 'नामकर्म' की सब से अधिक हैं। इसी कारण उसे सबसे अन्त में रखा है ॥१२४९-५० ॥ २१६ द्वार: उत्तर-प्रकृति पंचविहनाणवरणं नव भेया दंसणस्स दो वेए। अट्ठावीसं मोहे चत्तारि य आउए हुंति ॥१२५१ ॥ गोयम्मि दोन्नि पंचंतराइए तिगहियं सयं नामे । उत्तरपयडीणेवं अट्ठावन्नं सयं होइ ॥१२५२ ॥ मइ सुय ओही मण केवलाणि जीवस्स आवरिजंति । जस्सप्पभावओ तं नाणावरणं भवे कम्मं ॥१२५३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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